चीते जैसी फुर्ती, चील जैसी पैनी नजर, चीन को पलक झपकते गच्‍चा दे जाते हैं स्‍पेशल फ्रंटियर फोर्स के जवान

देश
श्वेता कुमारी
Updated Feb 18, 2021 | 23:24 IST

स्‍पेशल फ्रंटियर फोर्स के जवान चीन के लिए हमेशा से सिरदर्द रहे हैं। छापामार युद्ध में विशेष रूप से दक्ष इस फोर्स में तिब्‍बती समुदाय के जवान भर्ती होते हैं और ऐसे में चीन की बेचैनी आसानी से समझी जा सकती है।

चीते जैसी फुर्ती, चील जैसी पैनी नजर, चीन को पलक झपकते गच्‍चा दे जाते हैं स्‍पेशल फ्रंटियर फोर्स के जवान
चीते जैसी फुर्ती, चील जैसी पैनी नजर, चीन को पलक झपकते गच्‍चा दे जाते हैं स्‍पेशल फ्रंटियर फोर्स के जवान  |  तस्वीर साभार: BCCL
मुख्य बातें
  • स्‍पेशल फ्रंटियर फोर्स में तिब्‍बती जवान भर्ती होते हैं
  • ये छापामार, गुरिल्‍ला युद्ध में विशेष रूप से दक्ष होते हैं
  • इनमें चीन के प्रति 'प्रतिशोध' की जबरदस्‍त भावना होती है

नई दिल्‍ली : भारत और चीन के बीच बीते साल अप्रैल के आखिर में पूर्वी लद्दाख में वास्‍तव‍िक नियंत्रण रेखा पर शुरू हुए तनाव के बीच स्‍पेशल फ्रंटियर फोर्स (SFF) चर्चा में आया था। गुरिल्‍ला युद्ध में दक्ष इस खास फोर्स में भारत में निर्वासित जीवन बिता रहे तिब्‍बती समुदाय के जवान भर्ती होते हैं, जो कठिन इलाकों में भारतीय सेना के साथ मिलकर दुश्‍मनों के दांत खट्टे करते हैं। ऐसे में चीन की बेचैनी साफ समझी जा सकती है।

चीन को सबक सिखाने की मंशा

यूं तो स्‍पेशल फ्रंटियर फोर्स के बारे में बहुत चर्चा सुनने को नहीं मिलती है, लेकिन बीते साल चीन के साथ पूर्वी लद्दाख की गलवान घाटी में तनाव बढ़ा तो यह सुर्खियों में आया था। पूर्वी लद्दाख में LAC पर चीन से लोहा लेने वालों में भारतीय सैनिकों के साथ स्पेशल फ्रंटियर फोर्स के जवान भी शामिल रहे। इस दौरान एक चीन को 'सबक' सिखाने की चाहत रखने वाले एक बहादुर तिब्‍बती जवान नइमा तेनजिन की जान भी चली गई थी।

स्‍पेशल फ्रंटियर फोर्स में भर्ती होने वाले तिब्‍बती युवाओं के मन में चीन के प्रति 'प्रतिशोध' की जबरदस्‍त भावना है। ये वे लोग हैं, जिन्‍होंने 1950 के दशक में तिब्‍बत पर चीनी आक्रमण के बाद भारत में शरण ली थी। चीन के खिलाफ इनके दिलों में व्‍याप्‍त टीस और 'प्रतिशोध' की भावना को देखते हुए भारत सरकार अब तक इन्हें चीन से लगी सीमा पर तैनात करने से बचती रही है, लेकिन इस बार तनाव की स्थिति में इन्हें अग्रिम मोर्चों पर तैनात किया गया, जिसने चीन को मनोवैज्ञानिक तौर पर भी दबाव में डालने का काम किया।

छापामार युद्ध में खास तौर पर कुशल

स्पेशल फोर्स में शामिल तिब्बती युवा 1971 और 1999 का कारगिल युद्ध भी बहादुरी के साथ लड़ चुके हैं। इस खास फोर्स का गठन भारत और चीन के बीच 1962 हुए युद्ध के बाद किया गया था। इसका मकसद एक ऐसी फोर्स तैयार करना था, दुर्गम इलाकों में भी बेहद कुशलता के साथ युद्ध लड़ सके और चीनी सीमा को पार कर खुफिया ऑपरेशंस को अंजाम दे सके। इन्‍हें पहाड़ों पर चढ़ने और खास गुरिल्‍ला युद्ध की ट्रेनिंग दी गई।

इस फोर्स को 'इस्‍टैब्लिशमेंट 22' भी कहा जाता है। चीन को अच्छी तरह जानने-समझने वाली यह फोर्स बीजिंग के लिए हमेशा से सिरदर्द रही है। दुर्गम पहाड़ी इलाकों में लड़ी जाने वाली लड़ाइयों, गुप्त अभियानों में विशेष रूप से दक्ष स्‍पेश‍ल फ्रंट‍ियर फोर्स के जवानों को दुश्‍मन के खिलाफ अंतिम लड़ाके की मौजूदगी तक खड़े रहने का प्रशिक्षण दिया है। चीन के खिलाफ उनके गुस्‍से की झलक इस रेजीमेंट के लिए समर्पित गान में भी नजर आती है, जिसका आशय कुछ इस तरह है, 'एक दिन, निश्चित रूप से एक दिन, हम चीनियों को सबक सिखाएंगे।'

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