Staphylococcus Aureus Bacteria: कानपुर में स्टैफ्लोकॉकस ऑरियस बैक्टीरिया के कई वैरिएंट आ गए हैं, जिनसे घाव में सड़न होती है, टांके गल जाते हैं, हड्डियां जुड़ती नहीं और इम्प्लांट को शरीर स्वीकार नहीं करता। नए वैरिएंट पर कोई एंटी बायोटिक काम नहीं करती है। इस विकट स्थिति से मुकाबले के लिए वैक्सीन तैयार की गई है। इससे संक्रमण नियंत्रित होगा। इस वैक्सीन का फेज-टू ट्रायल हैलट में डेढ़ हजार रोगियों पर किया जाएगा। स्टैफ्लोकॉकस बैक्टीरिया के वैरिएंट रोकने के लिए यह पहली वैक्सीन है।
ट्रायल के चीफ इन्वेस्टीगेटर जीएसवीएम मेडिकल कॉलेज के प्राचार्य डॉ. संजय काला ने बताया कि अगले महीने से ट्रायल शुरू कर दिया जाएगा। ट्रॉमा के रोगियों में संक्रमण का प्रतिशत 50 से फीसदी तक पहुंच गया है।
इसके अलावा हड्डी संक्रमण के कारण जुड़ नहीं रही हैं। रोगी इम्प्लांट लगवाते हैं लेकिन संक्रमण हो जाने के कारण बेकार हो जा रहा है। संक्रमण की यह दर तेजी से बढ़ रही है। इसके लिए अमेरिका की एक कंपनी ने वैक्सीन तैयार की है। यह स्टैफ्लोकॉकस बैक्टीरिया के हर वैरिएंट से सुरक्षा देगी। डॉ. काला ने बताया कि यह ग्राम निगेटिव बैक्टीरिया है और ज्यादातर एंटी बायोटिक से रिसेस्टेंट है।
उन्होंने कहा कि इससे ट्रॉमा के घायलों के जख्म भरने में दिक्कत आती है। बैक्टीरिया सुपर बग बन गया है। इसके संक्रमण के कारण बहुत से घायलों के अंग काटने पड़ते हैं। देश में इस वैक्सीन का हैलट समेत 15 स्थानों पर ट्रायल हो रहा है। ट्रायल टीम में उप प्राचार्य डॉ. रिचा गिरि, डॉ. सौरभ अग्रवाल, डॉ. अनुराग सिंह आदि हैं।
स्टैफ्लोकॉकस ऑरियस बैक्टीरिया व्यक्ति की त्वचा पर भी रहता है। नाखून के अंदर, मुंह और अन्य स्थानों पर यह बना रहता है। शरीर के कट जाने पर यह खून में चला जाता है। इससे बहुत खतरनाक किस्म का संक्रमण होता है। लोगों के गैर जरूरत एंटी बायोटिक खाते रहने पर इसका असर नहीं होता। नए वैरिएंट जो बनते हैं, वे भी एंटीबायोटिक से रिसेस्टेंट होते हैं।
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