पूरी दुनिया कोरोना महामारी से जूझ रही है, तो भारत की विवाहित बेटियां दुखों का पहाड़ उठा रही हैं। जब से लॉकडाउन शुरु हुआ, महिलाओं के प्रति घरेलू हिंसा की खबरें पहले से अधिक सामने आने लगीं। अखबार, समाचार चैनल में ऐसी खबरें पढ़कर आप और हम भूल जाते हैं, लेकिन जरा उन परिवारों के बारे में सोचिए, जिनकी बेटियां इसका शिकार होती हैं।
चौंकाने वाला ये तथ्य
साल 2020, 25 मार्च से 31 मई के बीच घरेलू हिंसा के 68 दिनों की इस अवधि में पिछले 10 सालों में मार्च और मई के बीच आने वालों की तुलना में अधिक शिकायतें दर्ज की गईं।
महिला आयोग ने महिलाओं से किया आग्रह
राष्ट्रिय महिला आयोग की अध्यक्षा रेखा शर्मा ने भी महिलाओं से आग्रह करते हुए कहा था कि वो पुलिस में शिकायत दर्ज करवाएं या फिर राज्य महिला आयोग से संपर्क करें।
'ये बच्चा मेरा नहीं है ' कहकर घर से निकाला
उत्तर प्रदेश के एक छोटे से गांव की एक नव विवाहित बेटी को आधी रात को मायके के बाहर बने एक स्कूल में उसके ससुराल वाले छोड़ गए। डोली में मायके से ससुराल जाने वाली उस लाडली को ससुराल वालों ने उसके घर के आंगन तक पहुंचाने की जहमत नहीं उठाई। बाद में गांव में बात फैली कि गर्भवती लड़की के पति ने उसे ये कहते हुए आधी रात को घर से बाहर निकाला कि उसके पेट में पलने वाला बच्चा उसका नहीं है। कितना आसान है पुरुषों के लिए कहना कि ये बच्चा मेरा नहीं है। कुछ और नहीं मिला लड़की के खिलाफ तो उसके होने वाले भविष्य की पहचान पर ही सवालिया निशान लगा दिया।
क्या मां बनना ही अभिशाप है ?
सृष्टि के जनक ने महिलाओं को सृष्टि बढ़ाने का सौभाग्य दिया। भगवान भी माँ की कोख से जन्म लिए। स्वयं भगवान ने औरत को माँ बनने का आशीर्वाद दिया, लेकिन यही आशीर्वाद कई मामलों में अभिशाप बन जाता है।
25 साल की रिंकी (बदला हुआ नाम) के जीवन में आने वाली खुशी ही उनके लिए सबसे बड़ा अभिशाप बन गई। उसे क्या पता था कि जिस पति की छांव में सात जन्मों के लिए वो रहने आयी थी, वही उसके जीवन को तपती दुपहरी में बदल देगा। खुद रिंकी के पति ने उसे उसके मायके के सरहद पर छोड़ दिया। गांव की सरहद को लांघकर रिंकी की हिम्मत अपने बाबुल के आंगन तक पहुंचने की नहीं हुई। स्थिति की सूचना मिलने के बाद उसकी मां खुद उसे लेने पहुंची। बेटी के मायके पहुंचते ही घर वालों का खून खौल उठा, लेकिन गरीबी उन्हें पति के खिलाफ कोई कार्यवाई करने की हिम्मत नहीं दे पाई। रिंकी को एक बेटी हुई थी, जिसकी डिलीवरी के समय ही मौत हो गई। बच्ची के दुःख से उबारने और उसे मानसिक संबल देने की बजाय पति ने उसके चरित्र पर ही लांछन लगा दिया।
'अबकी बार बेटा नहीं तो तुम मेरे जीवन में नहीं'
एक औरत ही अपनी कोख में 9 महीने रखकर अपने खून से सींचकर एक नए बीज को जन्म देती है। वो नहीं जानती कि यही बीज जब किसी लड़की को ब्याहकर लाएगा, तो उसकी कोख पर निर्लज्जता से सवाल करेगा।
आजमगढ़ के फूलपुर के एक शख्स ने तीन बेटियां होने के बाद अपनी पत्नी से कहा कि इस बार अगर कोख से एक और बेटी को जन्म दिया, तो दूसरी शादी कर लूंगा। अब सवाल ये उठता है कि क्या अकेले औरत उस आने वाले को जन्म देती है? उसमें पुरुषों का कोई योगदान नहीं रहता। ये सवाल इसीलिए उठता है क्योंकि गर्भ धारण एक औरत करती है, पुरुष नहीं, इसलिए पुरुषों का सवाल करना आसान है? सृष्टि में नए जीव को लाने के लिए औरत और पुरुष दोनों ही सामान रूप से लिप्त होते हैं और आनंद उठाते हैं, फिर नतीजा मन माफिक न होने पर पुरुष महिलाओं पर सवाल कैसे कर सकता हैं?
क्या कहना है साइकोलोजिस्ट अरुणा ब्रूटा का ?
महिलाओं से जुड़े इस विषय पर बात करने के लिए हमने साइकोलोजिस्ट डॉक्टर अरुणा ब्रूटा से बात की। पुरुषों के ऐसा करने पर डॉक्टर अरुणा ने कहा, ये पुरुषों की मानसिक बीमारी है। उनके दिमाग में ऐसा भरा है कि वो जो चाहते हैं, वो करते हैं। ये पुरुषों की मानसिकता है। असल में इसमें पुरुषों से ज्यादा महिलाओं की भी गलती है। पुरुषों में कई विषयों को लेकर एकता है, लेकिन महिलाओं में नहीं है। इस समाज को पुरुष प्रधान बनाने में महिलाओं का ही हाथ है। वो चुप रहीं, जुल्म सहती रहीं। महिलाएं आपस में तालमेल बिठाकर नहीं चलीं, जिसका नतीजा उन्हें आजतक भुगतना पड़ रहा है। घर में मां-बेटी की नहीं पटती, बहू का सास और ननद से नहीं पटता, लेकिन पुरुषों में ऐसा नहीं होता। जबतक महिलाएं एकजुट नहीं होंगी, निडर नहीं बनेंगी और अपनी निंदा सुनने के लिए तैयार नहीं होंगी, तबतक समाज उनका शोषण करता रहेगा।
दुनिया बदल गई, लेकिन भारत में अभी भी महिलाओं को लेकर अधिकतर लोगों की सोच नहीं बदली। कहना आसान है कि इस तरह की घटनाएं अब कहीं नहीं होतीं, लेकिन सच्चाई की तह में जाने की हिम्मत कोई नहीं। अगर असली भारत हिंदुस्तान के गांव में बसता है, तो यकीन मानिए महिलाओं से संबंधित बहुत सी अप्रिय घटनाएं भी गांव-खेड़े में होती हैं, बस फर्क यह है कि शहरों में होने वाली घटनाएं हर जगह प्रकाशित हो जाती हैं, लेकिन गांव की गरीबी और समाज के दबाव में यहां की घटनाएं दम तोड़ देती हैं।