Ballia: क्रांति, संग्राम और बदलाव से जुड़ा है इस जिले का इतिहास, बागी बलिया की यह है कहानी

बलिया जिले का अपना शानदार इतिहास रहा है। इस जिले का जब जिक्र होता है तो मंगल पांडे, चित्तु पांडे और चंद्रशेखर का नाम बरबस याद आता है।

Ballia: क्रांति, संग्राम और बदलाव से जुड़ा है इस जिले का इतिहास, बागी बलिया की यह है कहानी
यूपी के पूर्वी छोर पर है बलिया  
मुख्य बातें
  • उत्तर प्रदेश के पूर्वी छोर पर बिहार की सीमा पर है बलिया जिला
  • मंगल पांडे, चित्तु पांडे, चंद्रशेखर सिंह से पहचान
  • शासन व्यवस्था के खिलाफ अक्सर बलिया बुलंद करता रहा है आवाज

लखनऊ। बलिया की धरती को बागियों की धरती क्यों कहा जाता है। इस जिले की तासीर इतनी गर्म क्यों हैं। आखिर वो क्या बात जिसकी वजह से बलिया के पहले बागी की विशेषण लगता है। बागी बलिया का जिक्र करने से पहले यह समझना जरूरी है कि भारत के नक्शे पर यह भूखंड कहां स्थित है। राजनीतिक और प्रशासनिक तौर पर बलिया उत्तर प्रदेश का हिस्सा है और पूर्वी इलाके में बिहार की सीमा पर है। इस जिले को दो बड़ी नदियां गंगा और घाघरा सिंचिंत करती हैं। यूं कहें तो भौगोलिक तौर पर यह इलाका खेती बाड़ी के लिए मशहूर रहा है। लेकिन उससे इतर यह जिला गंगा नदी की तरह शालीन तो घाघरा की प्रलयकारी लहरों की तरह सत्ता व्यवस्था के खिलाफ हिलोरे भी मारता है। 
1857 और मंगल पांडे
वैसे तो बलिया की धरती से ना जाने कितने रणबांकुरों ने देश के लिए दकियानुसी व्यवस्था के खिलाफ आवाज उठाई लेकिन तीन नाम का बलिया की धरती से खास पहचान रही है। ऋषि भृगु की धरती पर मंगल पांडे ने 1857 में अंग्रेजों के खिलाफ जो मुहिम छेड़ी वो नजीर बन गई। अंग्रेजों को अंदाजा नहीं था कि भारत की सत्ता जो उनके हाथ में आई है उसे इस तरह  से चुनौती दी जा सकती है। मंगल पांडे ने जब ब्रिटिश फौज के खिलाफ विद्रोह किया तो वो कई मायनों में खास था। उन्होंने एक तरफ अंग्रेजी दास्तां के खिलाफ ना सिर्फ अगुवा बने बल्किव सांप्रदायिक सद्भवा के अगुवा भी बने। यह बात सच है कि 1857 का आंदोलन कामयाब नहीं हुआ। लेकिन भारतीयों को यह भरोसा हो गया कि असंभव कुछ भी नहीं है। 

1942 और चित्तु पांडे
काल चक्र का पहिया घूमता रहा और 1942 के कालखंड में जब महात्मा गांधी मे करो या मरो के साथ अंग्रेजों, भारत छोड़ो का नारा बुलंद किया तो एक बार फिर बलिया का नाम चर्चा में आ गया। चित्तु पांडे की अगुवाई में ब्रिटिश सरकार का इमारतों पर स्वाधीनता झंडा फहरा कर यह संदेश दे दिया कि आजादी से कम अब कुछ भी स्वीकार नहीं। बलिया के साथ साथ तमलूक और सातारा में भी स्वाधीन सरकार बनाई गई थी। चित्तु पांडे ने ना सिर्फ यूनियन जैक को उतारा था। बल्कि शासन व्यवस्था का खाका भी खींचा था। 

युवा तुर्क चंद्रशेखर
1947 में देश आजाद हो चुका था और अब लालकिले पर भारतीय तिरंगा शान से लहरा रहा था। भारत की सत्ता भारत के लोगों के हाथ में थी। कांग्रेस पार्टी उस शासन व्यवस्था के केंद्र मेें थी। उसी समय एक और शख्स राजनीति के मैदान में दस्तक दे रहा था। उस शख्स का नाम था चंद्रशेखर । चंद्रशेखर  भी कांग्रेस के विचारधार से प्रभावित थे। लेकिन इंदिरा गांधी की कार्यप्रणाली से वो खुश नहीं थे और पार्टी लाइन से इतर जाकर अपने नजरिये को गढ़ा और उसके लिए उन्हें युवा तुर्क कहा गया। चंद्रशेखर के लिए सरकार में शामिल होने के कई मौके आए।लेकिन उन्होंने तय कर रखा था कि सत्ता की राजनीति में उनके लिए सिर्फ एक ही पद बना है और वो है पीएम का पद। 1990 के दशक में हालात तेजी से बदले और देश की शीर्ष कुर्सी पर विराजमान हुए। 

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