पटना: बिहार के विकास बाबू नीतीश कुमार की सत्ता की कुर्सी पर ऐसा गोंद लगा है कि वो उसे छोड़ ही नहीं रहे। मुख्यमंत्री तो वही रहेंगे, भले ही राजनीतिक समीकरण बदलकर दोस्त ही क्यों न बदलने पड़ जाए। ऐसा भी नहीं है कि नीतीश कुमार का जनाधार नहीं है, वो जमीनी नेता नहीं है, नहीं ऐसा बिल्कुल नहीं है। नीतीश चाहें तो बिहार की राजनीति का समीकरण बदल जाता है। जिस खेमे में जाते हैं, उसका पलड़ा भारी हो जाता है, फिर भी चुनावी दलदल में पिछले 16 साल से नहीं उतर रहे हैं। आखिर ऐसे क्यों है? जनता उनकी सरकार को पसंद कर रही है, उनकी सरकार बिहार में सत्ता में हैं, फिर भी चुनाव न लड़ना सच में आश्चर्यजनक लगता है।
जब “बाढ़” में बह गई चुनाव लड़ने की चाहत
आमतौर पर मुख्यमंत्री हो या प्रधानमंत्री, जब वो जनता के बीच से चुनकर आता है, उसका मजबूत जनाधार होता है, तो राज्य और देश की सत्ता को चलाने का आनंद और गुरूर ही कुछ और होता है, लेकिन विकास के पथ पर बिहार को ले जाने वाले नीतीश बाबू तो जैसे चुनाव लड़ना ही भूल गए हैं। आखिर ऐसा कौन सा झटका लगा कि नितीश कुमार विधान परिषद के सदस्य बनकर ही रह गए। वो चुनाव से दूरी बना लिए. साल 2004 के लोकसभा चुनाव में नीतीश कुमार ने अपने गृह जिला नालंदा और बाढ़ से चुनाव लड़ा, लेकिन बाढ़ की उस सीट से उन्हें पराजय का सामना करना पड़ा। इसका उन्हें बहुत बड़ा सदमा लगा, क्योंकि इससे पहले वो वहीं से जीतते आ रहे थे। बाढ़ की जनता ने अपने इस नेता को राजद नेता विजय कृष्ण के सामने स्वीकार नहीं किया। ये सदमा नीतीश के लिए इसलिए भी बड़ा था, क्योंकि वो यहीं से पढ़े-लिखे थे। उनका गहरा नाता था, लेकिन जनता ने अपना नाता नीतीश से तोड़ लिया था।
जब झोर का झटका धीरे से लगा
नीतीश कुमार को अंदेशा तो था कि “बाढ़” की जनता का प्यार उन्हें 2004 के लोकसभा चुनाव में नहीं मिलने वाला, लेकिन मन मानने को तैयार नहीं था। वो जानते थे कि जीत तो उनकी पक्की है, बस जीत का मार्जिन कम हो सकता है, लेकिन बाढ़ की जनता ने उन्हें जोर का झटका धीरे से दिया। इस झटके के बाद से नीतीश का चुनाव लड़ने की तरफ से मन उचट गया।
जब बने विधान परिषद के सदस्य बने
बाढ़ की जनता से ठुकराए जाने के बाद जैसे नीतीश खुद को पहचान ही नहीं पा रहे थे। वो नालंदा से अब भी सांसद थे, लेकिन उनकी अपनी सीट, अपने ही लोग उन्हें आईना दिखा दिए थे। ये आईना इतना साफ था कि दोबारा फिर कभी नीतीश चुनावी अखाड़े में नहीं उतरे। अपने सांसदी से इस्तीफा देकर वो विधान परिषद का सदस्य बने और बिहार की जनता के सेवक भी।
कहीं कोई टोटका तो नहीं मान रहे नीतीश बाबू !
वैसे राजनीति और फिल्मी दुनिया में तरक्की के लिए लोग इस हथियार का इस्तेमाल भी करते हैं। अब ये बात तो हजम होती नहीं कि जनता के बीच का ये नेता एक हार से डगमगा जाए। राजनीति में हार-जीत तो लगी रहती है. फिर ऐसा क्या है कि राजनीति के चुनावी अखाड़े में नीतीश बाबू उतर नहीं रहे। कहीं ये उनका टोटका तो नहीं। ये बात तो गौर करने वाली है कि वो मुख्यमंत्री तो हमेशा बन रहे हैं। राजनीति में ऐसा होता रहता है. चुनाव न जीतने पर भी सत्ता की कुर्सी कई रास्तों से होकर आने पर मिल ही जाती है। लेकिन अब सवाल उठना तो लाजमी है। नीतीश बाबू आगे भी विधान परिषद के सदस्य ही रहेंगे या उतरेंगे चुनावी आखाड़े में ?
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