पटना : बिहार में 5 जुलाई की तारीख बेहद खास होने जा रही है, जिसके लिए मुख्य विपक्षी राष्ट्रीय जनता दल (RJD) जोरशोर से तैयारियों में जुटा है तो सत्ता पक्ष की नजरें भी जमी हुई हैं। इस दिन आरजेडी की स्थापना को 25 साल पूरे होने जा रहे हैं और पार्टी ने इसके लिए व्यापक तैयारियां भी हैं। आरजेडी के इस सिल्वर जुबली सेलिब्रेशन की चर्चाओं के बीच राज्य की राजनीति में लालू प्रसाद की 'री-एंट्री' को लेकर भी कयासबाजियां तेज हो गई हैं, जो इन दिनों दिल्ली में 'स्वास्थ्य लाभ' ले रहे हैं।
बिहार में बीता विधानसभा चुनाव हो या अन्य बड़े सियासी अवसर, लालू प्रसाद अपनी ही पार्टी के पोस्टर से भी दूर रहे, लेकिन अब एक बार फिर पार्टी की स्थापना के रजत जयंती समारोह की तैयारियों के बीच जगह-जगह लगे पोस्टर्स में वह नजर आ रहे हैं। पार्टी के पोस्टर पर लालू की तस्वीर अपने आप में बहुत कुछ बयां कर जाती है। पार्टी के कार्यकर्ताओं में उत्साह भरने के लिए इसे बेहद अहम समझा जा रहा है तो कयासबाजियां इसे लेकर भी शुरू हो गई हैं कि लालू प्रसाद 5 जुलाई तक पटना लौट सकते हैं।
हालांकि आरजेडी का यह आयोजन कोरोना संकट के बीच हो रहा है और ऐसे में इस दौरान कोविड प्रोटोकॉल का भी पालन करना जरूरी होगा तो लालू की पटना वापसी को लेकर साफ तौर पर कुछ नहीं कहा जा सकता, लेकिन यह तय माना जा रहा है कि वह वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिये कार्यकर्ताओं को संबोधित कर सकते हैं और जाहिर तौर पर इस दौरान आरजेडी प्रमुख का भाषण तो खास होगा ही। इससे पहले भी वह अपने समर्थकों से कह चुके हैं कि स्वस्थ होते ही वह उनके बीच होंगे।
जाहिर तौर पर बिहार की राजनीति में लालू प्रसाद की 'री-एंट्री' से आरजेडी की अगुवाई वाले महागठबंधन में खुशी है तो वहीं एनडीए के खेमे में एक तरह की बेचैनी देखी जा रही है। एनडीए के नेताओं के बयानों से साफ हो चुका है कि इस घटनाक्रम पर कैसे उनकी नजर करीब से बनी हुई है। इसे बीजेपी के वरिष्ठ नेता और राज्य के उपमुख्यमंत्री रह चुके सुशील कुमार मोदी के उस बयान से भी समझा जा सकता है, जिसमें उन्होंने यहां तक कहा कि लालू प्रसाद को जमानत राजनीति करने के लिए नहीं दी गई है।
एनडीए नेताओं के बयान बताते हैं कि आरजेडी के 25वें स्थापना दिवस को लेकर जिस तरह की तैयारियां पार्टी स्तर पर की जा रही हैं, उतनी ही उत्सकुता सत्तारूढ़ खेमे में भी है। इसकी कई वजहें हैं। एक तो यह सबकुछ ऐसे समय में होने जा रहा है, जब सत्तारूढ़ गठबंधन के दो प्रमुख घटक दलों- बीजेपी और जेडीयू में 'सबकुछ ठीक नहीं' होने की चर्चाएं हैं।
अरुणाचल प्रदेश में बीजेपी की 'सियासी चाल' ने नीतीश कुमार को बड़ा झटका दिया, जहां जेडीयू के छह विधायक बीजेपी में शामिल हो गए तो राज्य में बीते साल हुए विधानसभा चुनाव में मिली सीटों की संख्या ने भी जेडीयू प्रमुख को चिंताओं में डाला है। विगत कुछ समय में वह अपनी पार्टी को मजबूत करने की कवायद करते देखे गए, जब वह उपेंद्र कुशवाहा को अपने साथ जोड़ने में कामयाब रहे।
इसके अतिरिक्त हाल ही में लोक जनशक्ति पार्टी (LJP) में 'टूट' देखी गई है, जिसके लिए चिराग पासवान ने जेडीयू को भी जिम्मेदार ठहराया। हालांकि नीतीश कुमार ने पार्टी में 'असंतोष' और विभाजन में अपनी किसी भी तरह की भूमिका से इनकार किया है, लेकिन इससे भी इनकार नहीं किया जा सकता कि एलजेपी की वजह से भी बिहार में बीते साल हुए विधानसभा चुनाव में पार्टी को भारी नुकसान उठाना पड़ा और आरजेडी (75), बीजेपी (74) के बाद जेडीयू (44) तीसरे नंबर की पार्टी बन गई।
एलजेपी में चिराग पासवान और पशुपति कुमार पारस की खींचतान अन्य दलों के लिए अवसर बन सकती है, इससे इनकार नहीं किया जा सकता। तेजस्वी यादव द्वारा चिराग पासवान को अपनी पार्टी में शामिल होने का दिया गया न्यौता इसी को बयां करता है तो जेडीयू, बीजेपी की नजरें भी इस पर बराबर बनी हुई हैं कि आखिर चिराग और पारस गुट में किसका पलड़ा भारी होता है।
फिर बिहार में नीतीश की अगुवाई वाली एनडीए सरकार में शामिल रहते हुए बीते कुछ समय में हिन्दुस्तानी अवाम मोर्चा (हम) के नेता व राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी जिस तरह सरकार की नीतियों को लेकर खुलकर बोलते रहे हैं, उसने भी नई अटकलों को जन्म दिया है। नीतीश की अगुवाई वाली एनडीए सरकार में मुकेश सहनी की वीआईपी भी शामिल है, जिसके असंतुष्ट होने की भी चर्चा है।
तेजस्वी के उस बयान ने भी सरकार की स्थिरता को लेकर सवाल खड़े किए हैं, जिसमें पिछले दिनों उन्होंने कहा कि नीतीश सरकार केवल दो-तीन महीने की मेहमान है। हालांकि हाल ही में अपनी पार्टी आरएलएसपी का विलय जेडीयू में करने वाले उपेंद्र कुशवाहा ने इसे नकारा और कहा कि नीतीश सरकार अपना पांच साल का कार्यकाल पूरा करेगी। दरअसल, एनडीए और महागठबंधन में सीटों का कम अंतर भी एक बड़ी वजह है, जिसके कारण यहां सरकार की स्थिरता को लेकर बीच-बीच में कयासबाजियां शुरू हो जाती हैं।
ये सब परिस्थितियां बिहार की राजनीति में लालू प्रसाद की सक्रियता से किस करवट बैठती हैं, ये देखने वाली बात होगी, पर इसने बिहार की राजनीति को लेकर लोगों में उत्सुकता बढ़ा दी है।
जोड़-तोड़ की राजनीति में माहिर समझे जाने वाले लालू प्रसाद की वजह से यूं तो फिलहाल राज्य में किसी बड़े सियासी उलटफेर के आसार नजर नहीं आ रहे हैं, लेकिन इतना तय है कि जमानत मिलने के बाद जब वह राज्य की राजनीति में मुखर और सक्रिय होंगे तो यहां की सियासत को एक नई धार जरूर मिलेगी।
(डिस्क्लेमर: प्रस्तुत लेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं और टाइम्स नेटवर्क इन विचारों से इत्तेफाक नहीं रखता है)
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