अबूजर कमालुद्दीन/नई दिल्ली: कभी आप पुरानी दिल्ली के जामा मस्जिद इलाक़े में गए हैं ? वहां एक मशहूर जगह है जहां शाम के वक़्त लम्बी क़तार लगती है। जानते हैं क्यों ? क्योंकि वहां 'मैं' यानी कबाब मिलता हूं। 'क़ुरेशी कबाब' वाले मुझे इतने अलग स्वाद में पेश करते हैं के क्या दिल्ली वाले, क्या पंजाब वाले और क्या विदेश के गोरे सबके सब मुझे खाने के लिए टोकन लेकर क़तार में इंतज़ार करते हैं। क्या नाश्ता, क्या खाना, शादी पार्टियों के साथ-साथ रेस्टोरेंट और बार में मेरी ज़बरदस्त डिमांड है। अब तो आपको समझ आ ही गया होगा के मैं अपने लाजवाब स्वाद के लिए कितना मशहूर हूं।
मेरी पैदाइश कहां हुई ?
वैसे तो मेरी पैदाइश मध्य एशिया में हुई लेकिन आज के दौर में मैं दुनिया के हर कोने में मौजूद हूं। मध्य एशिया में मेरा इतिहास हजारों साल पुराना है। मैं इस आधुनिक दुनिया में अलग-अलग नामों से बुलाया जाता हूं। आज के दौर में मेरी इतनी वैराइटी मौजूद है के खाने वाले सोचने पर मजबूर हो जाते हैं के कौन सा वाला खाऊं। दसवीं सदी में इब्न सय्यार अल-वरक़ ने अपने बग़दादी व्यंजनों की किताब 'अल-तबीख' में भी मेरी चर्चा की है। वैसे तो मेरा नाम अरबी शब्द 'Cabob' से निकल कर आया। तुर्कों ने दुनिया भर में मुझे जो पहचान दिलाई उसके लिए मैं उनका हमेशा एहसानमंद रहूंगा।
मैं यानी 'कबाब' हिंदुस्तान कैसे पहुंचा?
अपनी क़दमों से दुनिया का चक्कर काटने वाले मोरक्को के मशहूर यात्री इब्न बतूता ने भी 14वीं सदी में मोहम्मद बिन तुग़लक़ के दरबार में मेरी मौजूदगी की बात लिखी है। इब्न बतूता ने तो यह भी देखा के उत्तर भारत में लोग मुझे सुबह के नाश्ते में भी नोश फरमाते(खाते) हैं। आपलोग फिर भी यह जानना चाहते होंगे के मैं हिंदुस्तान कैसे पहुंच गया? तो कहानी यह है के अफ़ग़ान आक्रमणकारी और अरब व्यवसायी मुझे भारत लेकर आए। लेकिन मुग़लों ने मुझे हिंदुस्तान में असल पहचान दिलाई।
अलग-अलग पते पर अलग-अलग नाम और स्वाद
वैसे तो मैं एक अंतरराष्ट्रीय व्यंजन हूं लेकिन जैसे-जैसे मैंने दुनिया का चक्कर लगाया मेरा स्वाद और नाम बदलता गया। चीन का शिनजियांग प्रांत एक मुस्लिम बहुल इलाका है। यहां उइगर मुसलमानों की एक बड़ी आबादी रहती है। वहां मैं बहुत मशहूर हूं और मुझे 'कवाप' के नाम से जाना जाता है। पश्चिमी अफ्रीका में 'सुया स्पाइसी कबाब' के नाम से मेरी शोहरत है। वहीं अफ़गानिस्तान के मेरे भाई 'चोपन कबाब' के दीवाने पूरी दुनिया में मौजूद हैं। ईरान में मेरा एक समुदाय 'चेलो कबाब' के नाम से जाना जाता है और इसे ईरान का राष्ट्रीय व्यंजन भी कहा जाता है। तुर्की के मेरे रिश्तेदार 'अदाना कबाप' मतलब 'कीमा कबाबी' का तो नाम सुनते ही मुंह में पानी आ जाता है।
टुंडे कबाब से होते हुए गलौटी वाया राजपूती कबाब
अब आप ही देख लीजिये न कमज़ोर दांत वाले नवाब वाजिद अली शाह भी मेरे ऐसे आशिक़ थे कि अपने शाही बावर्ची को मेरी एक ऐसी वैराइटी बनाने का हुक्म दिया जो मुंह में जाते ही घुल जाए। अब वो भी ठहरे शाही बावर्ची, उन्होंने बना डाला 'टुंडे कबाब'। मेरे इस भाई ने लखनऊ में अपनी ऐसी छाप छोड़ी के आज यह लखनऊ की पहचान बन चुका है। गलावटी कबाब और शामी कबाब तो मेरे ऐसे दोस्त हैं जो भारतीय रेस्टोरेंट्स में आम तौर पर मिल जाते हैं। मेरा मौसेरा भाई डोनर कबाब पश्चिमी खानपान में अपनी अलग पहचान रखता है। सीख, सुतली और चपली कबाब तो जैसे गर्म गुलाब जामुन के ऊपर चॉक्लेट सीरप।
हिंदुस्तान के एक राज्य ने तो अपने नाम पर ही मेरा नाम रख दिया। मैं यानी 'बिहारी कबाब' के पीछे तो दिल्ली वाले ऐसे दीवाने हैं के हफ्ते में एक दिन दुकानों में मिलता हूं और लोग मेरी एडवांस बुकिंग करवाते हैं। हिंदुस्तान में राजपूत घराने हमेशा से शिकार के शौक़ीन रहे। वो शिकार के बाद या कैंप के दौरान 'राजपूती सुलाह' खाना पसंद करते थे। यह राजपूती कबाब हलके आग पर भूना जाता है।
नवाब सैय्यद मोहम्मद और काकोरी कबाब
उत्तर प्रदेश के काकोरी ज़िले के नवाब सैय्यद मोहम्मद हैदर काज़मी ने एक बार आम के मौसम में अपने ब्रिटिश साथियों के लिए एक दावत का आयोजन किया। नवाब ने दावत में उन्हें बेहतरीन अवधी व्यंजन और कबाब परोसा। लेकिन ब्रिटिश मुझे यानी कबाब को खाने के बाद बहुत नाराज़ हुए। उन्हें मुझे चबाने में बहुत परेशानी हो रही थी। इस बात पर नवाब साहब इतने नाराज़ हुए के उन्होंने अपने ख़ानसामा से कहा कि एक ऐसा कबाब बनाओ जो सॉफ्ट और ज़ायक़ेदार हो। ख़ानसामाओं ने 10 दिन की लगातार मेहनत के बाद मेरी एक प्रजाति 'काकोरी कबाब' को जन्म दिया। मेरी इस प्रजाति को सॉफ्ट रखने के लिए पपीते का इस्तेमाल किया गया। काकोरी कबाबा को कबाबों का राजा भी कहा जाता है।
तो अब आप अगर दिल्ली में हैं या दिल्ली घूमने आ रहे हैं तो भीड़भाड़ वाली निज़ामुद्दीन बस्ती में 'ग़ालिब कबाब कॉर्नर' जाएं और मेरा स्वाद ज़रूर चखें। बिहार की राजधानी पटना में हैं तो 'महंगू होटल' का कबाब और कीमा गोली खाना न भूलें। लखनऊ के 'टुंडे कबाबी' और पुराने नज़ीराबाद के 'वाहिद बिरयानी' के 'शाही मटन कबाब' का क्या कहना। कोलकाता गए और 'अरसलान रेस्टोरेंट' का 'चिकन अरसलान कबाब' नहीं खाया तो आप चूक गए। तो बस देश और विदेश घूमिये और मेरे अलग-अलग रिश्तेदारों और दोस्तों के लाजवाब स्वाद का मज़ा लीजिये। ये थी मेरी यानी 'कबाब' की एक छोटी सी कहानी। जलील मानिकपुरी मेरी अहमियत पर लिखते हैं, 'दिल जले जब मज़ा है रोने का, मय है पानी अगर कबाब नहीं'।
(लेखक टाइम्स नाउ में जूनियर रिपोर्टर हैं।)