वैशाख मास के शुक्ल पक्ष में आने वाली एकदाशी को मोहिनी एकदाशी कहा जाता है। मोहिनी एकदाशी को सभी एकदशियों में खास माना जाता है। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार इस दिन भगवान विष्णु ने देवी देवताओं को अमृत पान कराने के लिए मोहिनी रूप धारण किया था। इस दिन विधि विधान से भगवान विष्णु की पूजा अर्चना करने से सुख समृद्धि की प्राप्ति होती है और सभी मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं। साथ ही दांपत्य जीवन भी खुशहाल व्यतीत होता है। पौराणिक कथाओं के अनुसार एक बार भगवान श्री कृष्ण ने युधिष्ठिर को मोहिनी एकादशी व्रत की कथा सुनाई थी। ऐसे में आइए जानते हैं मोहिनी एकदाशी की कथा।
मोहिनी एकदाशी की व्रत कथा, mohini ekadashi vrat katha hindi mein
पौराणिक कथाओं के अनुसार एक बार युधिष्ठिर ने श्रीहरि भगवान कृष्ण से वैशाख माह में आने वाली एकदाशी के महत्व और इसके बारे में पूछा। युधिष्ठिर के प्रश्न का उत्तर देते हुए श्रीहरि ने कहा ‘हे धर्मपुत्र आज से अनेक वर्षों पूर्व इस एकादशी के विषय में जो कथा वशिष्ठ मुनि ने प्रभु रामचंद्र जी को सुनाई थी उसी का वर्णन मैं करता हूं, ध्यानपूर्वक सुनना’। ये कहकर श्रीहरि ने मोहिनी एकादशी व्रत कथा का प्रारंभ किया।
एक बार प्रभु श्री रामचंद्र जी ने गुरु वशिष्ठ मुनि से बड़े ही विनम्रता पूर्वक पूछा, हे मुनिवर आप मुझे कोई ऐसा व्रत बताएं जिसके प्रभाव से समस्त पापों और दुखों से मुक्ति प्राप्त हो सके। भगवान राम को संबोधित करते हुए वशिष्ठ मुनि ने कहा, हे राम आपका प्रिय नाम समस्त प्राणियों के दुखों का नाश करता है लेकिन फिर भी आपने जनकल्याण के लिए ये प्रश्न पूछा है, जो कि प्रशंसनीय है। वशिष्ठ मुनि ने बताया सरस्वती नदी के रमणीय तट पर भद्रावती नाम की नगरी है, जहां चंद्रवंश में उत्पन्न सत्यप्रिज्ञ धृतिमान नामक राजा राज करते थे। उसी नगरी में एक वैश्य रहता था, जो धन्य धान से परिपूर्ण और समृद्धशाली था। उसका नाम था धर्मपाल, वह सदा पुण्य कर्मों में ही लगा रहता था। दूसरों के लिए कुआं, मठ बगीचा, पोखरा और घर बनवाया करता था। भगवान श्री विष्णु की भक्ति में वह सदा लीन रहता था, उसके पांच पुत्र थे। सुमना, द्युतिमान, मेधावी, सुकृत व धृष्टबुद्धि, धृष्टबुद्धि पांचवा पुत्र था। लेकिन दुर्भाग्य से उनका पांचवा पुत्र धृष्टबुद्धि अपने नाम के अनुसार ही अत्यंत पापी और दुराचारी था। वह बड़े बड़े पापों में संलग्न रहता था। वह वेश्याओं से मिलने के लिए लालायित रहता था। उसकी बुद्धि ना तो देवी देवताओं के पूजन में लगती थी और ना ही ब्राम्हणों के सत्कार में, वह अन्याय के मार्ग पर चलकर पिता का धन बर्बाद किया करता था। एक दिन वह एक वैश्या के गले में हांथ डाले चौराहे पर देखा गया। इसे देख पिता ने उसे घर से बाहर निकाल दिया और लोगों ने भी उसका परित्याग कर दिया।
अब वह दिन रात अत्यंत शोक और चिंतित होकर इधर उधर भटकने लगा। एक दिन वह वैशाख के महीने में महर्षि कौण्डिन्य के आश्रम जा पहुंचा। महर्षि कौण्डिन्य गंगा से स्नान करके आए थे। धृष्टबुद्धि मुनिवर कौण्डिन्य के पास गया और हाथ जोड़कर बोला, हे मुनिवर मुझे कोई ऐसा व्रत बताइए जिसके पुण्य प्रभाव से मेरे कष्टों का नाश हो सके और मैं इस असहाय पीड़ा से मुक्त हो सकूं। महर्षि कौडिन्य ने बताया वैशाख के महीने में शुक्ल पक्ष में मोहिनी नामक प्रसिद्ध एकादशी का व्रत करो।
धृष्टबुद्धि ने महर्षि कौण्डिन्य के कथानुसार मोहिनी एकादशी पर विधि विधान से व्रत किया और उस व्रत के प्रभाव से वह निष्पाप हो गया। तथा अंत में वह दिव्य देह धारण कर गरुण पर सवार होकर विष्णुधाम चला गया।
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