Surya Grahan Katha: समुद्र मंथन से जुड़ी है सूर्य ग्रहण की कथा, जब भगवान विष्णु ने चलाया सुदर्शन चक्र

Surya Grahan Hindi Katha 2021: एक खगोलीय घटना के रूप में सूर्य ग्रहण के अपने स्पष्ट वैज्ञानिक कारण तो हैं लेकिन इससे जुड़ी कुछ पौराणिक मान्यताएं और कथाएं भी रही हैं। इसकी कथा समुद्र मंथन के समय से जुड़ी है।

Surya Grahan ki Pauranik Katha 2021
सूर्य ग्रहण की पौराणिक कथा 
मुख्य बातें
  • ग्रहण के पीछे है समुद्र मंथन के समय की एक पौराणिक कथा
  • जब भगवान विष्णु ने धारण किया था मोहिनी रूप
  • सुरदर्शन चक्र से राहु और केतु बन गया था असुर का सिर व धड़

Surya Grahan Katha 2021 in Hindi: साल 2021 का पहला सूर्य ग्रहण 10 जून को लग रहा है और यह इस साल लगने वाले दो सूर्य ग्रहण में पहला है जबकि इसके बाद दूसरा सूर्य ग्रहण दिसंबर महीने में होगा। 10 जून 2021 का सूर्य ग्रहण एक वलयाकार होगा। वैज्ञानिक तौर पर सूर्य ग्रहण तब होता है जब चंद्रमा- सूर्य और पृथ्वी के बीच से गुजरता है। चंद्रमा के पीछे सूर्य का बिम्ब ढकने की खगोलीय घटना सूर्य ग्रहण कहलाती है।

वैसे वैज्ञानिक तौर पर तो सूर्य ग्रहण के अपने कारण और प्रभाव बताए गए हैं लेकिन ज्योतिष शास्त्र में भी इन बातों का जिक्र मिलता है और ग्रहण के पीछे एक पौराणिक कथा (Surya Grahan ki Kahani) भी बताई जाती है। यहां हम आपको सूर्य ग्रहण की पौराणिक कथा (Surya Grahan Pauranik Katha) के बारे में बताने जा रहे हैं।

सूर्य ग्रहण की पौराणिक कथा (Surya Grahan Pauranik Kahani)

पौराणिक मान्यताओं के अनुसार सूर्य ग्रहण की कथा समुद्र मंथन से जुड़ी हुई है। मंधन के बाद जब अमृत निकला तो देवों और दानवों के बीच अमृत पान को लेकर विवाद और युद्ध हो रहा था। तब भगवान विष्णु जी ने इस समस्या को सुलझाने के लिए उपाय निकाला। नारायण ने मोहनी एकादशी के दिन मोहिनी रूप धारण कर लिया और यह रूप धारण कर विष्णु जी ने अमृत पिलाने की जिम्मेदारी अपने हाथ में लेकर सभी देवताओं और असुरों को अलग-अलग बैठा दिया।

लेकिन असुरों की प्रवृत्ति छल की होती है और ऐसे में एक असुर छल से देवताओं की ओर आकर बैठ गया। वह इस पंक्ति में सबसे आगे बैठा था और सबसे पहले अमृत पान करना चाहता था। देवों की पंक्ति में चंद्रमा और सूर्य भी बैठे थे। उन्होंने उस असुर को देख लिया। इसकी जानकारी चंद्रमा और सूर्य ने भगवान विष्णु को दे दी।

यह बात जानकर भगवान विष्णु ने अपना सुदर्शन चक्र निकाला और राहु नाम के इस असुर का सिर धड़ से अलग कर दिया। लेकिन धड़ अलग करने से पहले ही उसने अमृत पी लिया था, जिसके चलते उसकी मृत्यु नहीं हो सकी।

इसी असुर का सिर वाला हिस्सा राहु और धड़ वाला भाग केतु के नाम से जाना गया। इसके बाद से राहु और केतु ने सूर्य व चंद्रमा का अपना शत्रु माना। इसलिए वह पूर्णिमा के दिन चंद्रमा को और अमावस्या के दिन सूर्य को खाने की कोशिश करते हैं। जब वह सफल नहीं हो पाते और कुछ समय तक दोनों को निगलने की कोशिश करते हैं तो इसे ग्रहण कहते हैं। धार्मिक मान्यता अनुसार, राहु और केतु के कारण ही चंद्रग्रहण और सूर्य ग्रहण की घटना होती है।

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