'हाँ, मैं उस भारत से आता हूँ...', देश विरोधी बयानों पर बवाल के बीच देश-प्रेम को बयां करती एक कविता

भारतीय राजनीति में इन दिनों 'बयानवीरों' के कई बयान सुर्खियां बटोर रहे हैं। कोई इन्‍हें अभिव्‍यक्ति की स्‍वतंत्रता बताकर इनका समर्थन करता है तो कोई देश विरोधी बताकर ऐसे लोगों के खिलाफ कार्रवाई की मांग करता है। इन सबके बीच पढ़‍िये एक कविता, जो देश-प्रेम को बयां करती है: 

'हाँ, मैं उस भारत से आता हूँ...', देश विरोधी बयानों पर बवाल के बीच देश-प्रेम को बयां करती एक कविता
'हाँ, मैं उस भारत से आता हूँ...', देश विरोधी बयानों पर बवाल के बीच देश-प्रेम को बयां करती एक कविता  |  तस्वीर साभार: Representative Image

देश की राजनीति में इन दिनों में बयानों पर बवाल मचा हुआ है। कविता पाठ से लेकर कई ऐसी बातें हैं, जिन पर नेताओं से लेकर आम लोगों तक में ठन रही है। कोई अभिव्‍यक्ति की स्‍वतंत्रता के नाम पर इनका समर्थन करता है, जो कहीं इन्‍हें राष्‍ट्रविरोधी करार देते हुए इनके खिलाफ एक्‍शन की मांग भी उठती है। इन सबके बीच देश-प्रेम को बयां करती हिंदी की एक कविता है, जो दिल को छू लेने वाली है। इसके जरिये बताया गया है कि भारत आखिर किस तरह का देश है और कैसे यहां विभिन्‍न संस्‍कृतियां एकजुट हैं। पढ़‍िये देश-प्रेम को बयां करती ये कविता:

'हाँ, मैं उस भारत से आता हूँ, 
जिसके हर कोस पर बदलता है - पानी
और हर चार कोस पर बदलती है - वाणी,
फिर भी वसुधैव कुटुम्बकम है- 'आत्मा' 
इस देश की,
यहाँ स्त्री सिर्फ देवी ही नहीं,
जननी है ममता, दया, करुणा की,
उसे भोग्या बनाने का किया कुत्सित प्रयास,
जाने कितने आक्रान्ताओं ने?
लेकिन फिर भी अपने आत्म- सम्मान के लिए,
जौहर करने का एक भी उदारहण 
क्या है, किसी और देश में?
लेकिन जाने कितने जयचन्दों ने,
छलनी किया भारत माँ का आँचल,
ये पावन भूमि है राम की,
जो जानती है शस्त्र उठाना,
नारी- अस्मिता के लिए 
ये पावन भूमि है कृष्ण की,
जिस के कण- कण में है 
धर्म की स्थापना का संकल्प,
ये कबीर, नानक, तुलसी की भूमि है,
जो नकारती है,
मानव- मानव के किसी भी प्रकार के भेद को, 
विवेकानन्द की इस पावन भूमि को,
क्यों न करे दिल चूमना, 
जिसने कराया अहसास सारी दुनिया को,
सनातन संस्कृति की महानता का,
जो अपने तमाम भिन्नताओं के बाद भी, 
है अन्दर से धागे में पिरोये मोतियों की तरह,
एक-सूत्र, एक-लय, एक-माला में,
लेकिन इस संस्कृति की जड़ों को,
खोखला करने वाले,
कहीं बाहर से नहीं आये,
हमारे अपनों ने ही,
इसे किया लहुलुहान,
कब तक चलता रहेगा ये षड्यन्त्र? 
अपनों के ही द्वारा,
अपनों की पीठ में छुरा घोंपना,
क्या इतनी महान संस्कृति,
जैसी कोई और संस्कृति है?
कोई नहीं 
और ये बात जानता है हर कोई,
लेकिन अपने छुद्र स्वार्थों के लिए,
जाने कब से होता रहा है,
और जाने कब तक होगा,
अपनी ही संस्कृति पर कुठाराघात,
क्यो सो गई है आत्मा हम सब की?
जो हम बाहरी संकट तो छोड़िए, 
आन्तरिक संकटों, दुश्मनों को भी 
नहीं पहचान पा रहे,
क्या है ऐसा कोई देश,
जिसने नहीं किया कभी 
आक्रमण किसी अन्य पर,
नहीं किया कभी सनातन संस्कृति का,
जबरन आरोपण,
जो विश्वास रखती है,
जमीनों को जीतने में नहीं,
बल्कि मनों को जीतने में,
जहाँ मनाए जाते हों, 
सारे तीज- त्यौहार, 
बिना किसी भेद के,
उस देश पर लांछन लगाने का,
ये घृणित खेल- चलेगा कब तक?
जानते सब हैं कि-
इस देश जैसा कोई और देश नहीं,
जहाँ स्त्री ही नहीं,
नदी, पशु व वृक्षों तक को माना जाता हो,
उस ईश्वर का प्रतिरुप,
लेकिन फिर भी छुद्र स्वार्थ के लिए,
इस देश को निजी जागीर समझ कर,
कुछ भी कहने, करने 
का निर्मम खेल 
क्या यूँ ही चलता रहेगा?
जगाना होगा  हमें अब,
अपने आत्म- गौरव, 
आत्म-स्वाभिमान को,
हाँ, मुझे गर्व है कि, मैं,
उस भारत की भूमि से आता हूँ,
और सिर्फ आता ही नहीं,
बल्कि पैदा हुआ हूँ, 
जिसकी मिट्टी में खेलने को, 
स्वयं परमात्मा भी रहता है लालायित,
और इसलिए आता है,
बार-बार नाम व रूप बदलकर।'

डॉ. श्याम 'अनन्त'

(लेखक उत्तर प्रदेश राज्य कर विभाग में असिस्टेंट कमिश्नर पद पर नोएडा में कार्यरत हैं)

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