चीन अपनी सत्तरवीं वर्षगांठ पर शक्तिशाली राष्ट्र बनने की ओर अग्रसर

दुनिया
Updated Oct 03, 2019 | 13:54 IST | विकास कुमार सिंह

China News: चीन के तत्कालीन इतिहास में एक अक्तूबर का दिन भी यही विशेष महत्व रखता है। एक अक्तूबर प्रतीक है चीनी जनता के उठकर खड़े होने का।

CHINA President XI Jinping
चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग  |  तस्वीर साभार: AP
मुख्य बातें
  • 1 अक्टूबर को चीन ने अपनी स्थापना की 70वीं वर्षगांठ मनाया
  • 1949 में एक अक्तूबर को चीन लोक गणराज्य की स्थापना की गई थी
  • सत्तर वर्षों बाद विश्व पटल पर एक महान शक्ति के रूप में उभर रहा है चीन
  • शिक्षा के क्षेत्र में कुछ वर्षों में अभूतपूर्व विकास किया है चीन ने

किसी भी राष्ट्र में हरेक माह का अपना अलग महत्व होता है, हरेक माह में किसी खास दिन का महत्व और उस दिन के साथ जुड़ी यादों से और भी विशेष हो जाता है। चीन के तत्कालीन इतिहास में एक अक्तूबर का दिन भी यही विशेष महत्व रखता है। एक अक्तूबर प्रतीक है चीनी जनता के उठकर खड़े होने का। यह वही विशेष दिन है, जिस दिन चीन के महान नेता माओ त्स तुंग ने थ्येन आन चौक में एकत्रित जनसमूह को फॉरबिडेन सिटी की प्राचीर से संबोधित करते हुए कहा था- आज चीनी जनता खड़ी हो गई है।

उनके इस वाक्य का प्रभाव अभी भी चीनी नागरिकों के दिलो-दिमाग पर उसी तरह अंकित है जैसे कि यह कल ही की घटना हो। यह वाक्य शायद विदेशी व्यक्तियों के लिए उतना महत्वपूर्ण नहीं हो, लेकिन सत्तर साल बाद माओ त्स तुंग के द्वारा संबोधित इस वाक्य का सही अभिप्राय या अर्थ वर्तमान में प्रतीत होता नज़र आ रहा है।

इस वर्ष एक अक्तूबर को चीन अपनी स्थापना की सत्तरवीं वर्षगांठ मना रहा है। यह साल चीन के लिए कई मायनों में विशेष महत्व रखता है। चीन के प्रसिद्ध दार्शनिक कन्फ्यूशियस की उक्ति है- पंद्रह साल की उम्र में मैंने सिर्फ़ अध्ययन की चेष्टा की, तीस में सही और गलत की समझ हुई, चालीस में कभी भ्रमित नहीं हुआ, पचास में भाग्य का ज्ञान हुआ, साठ में लोगों की अभिव्यक्ति का सही मूल्यांकन सीखा, सत्तर में मन ने जो सोचा वही किया, और कभी भी नियमों से विचलित नहीं हुआ।

सन् 1949 में माओ त्स तुंग के नेतृत्व में चीन लोक गणराज्य की स्थापना से लेकर वर्तमान समय तक के सत्तर वर्षों का मूल्यांकन किया जाए तो महान दार्शनिक कनफ्यूशियस की यह उक्ति चीन के लिए बिल्कुल सटीक बैठती है। सन् 1949 में एक अक्तूबर को चीन लोक गणराज्य की स्थापना की घोषणा आधिकारिक तौर पर की गई थी। उस समय से ही एक अक्तूबर को चीन की स्थापना दिवस के रूप में मनाया जाता आ रहा है।

उस समय कुछ देशों ने साम्राज्यवाद के नशे के दंभ में तो कुछ ने चीन की लाचारी और दुर्दशा को देखते हुए उसके अस्तित्व से ही इंकार कर दिया था और उन्होंने तायवान को इसके बदले संपूर्ण राष्ट्र का दर्जा दिया था। लेकिन शायद किसी को भी विश्वास नहीं था कि जो चीनी जनता सन् 1949 में उठ खड़ी हुई थी वे बिना किसी गतिरोध के अपना मार्ग स्वयं बनाते हुए सत्तर वर्षों बाद विश्व पटल पर एक महान शक्ति के रूप में उभरेगी।

चीन में प्राचीन काल से ही सत्तर वर्ष को जीवन के एक महत्वपूर्ण पड़ाव के रूप में माना जाता है। इस दृष्टिकोण से भी चीन के लिए यह साल बहुत महत्वपूर्ण है। कई देशों को यह अटूट विश्वास था कि कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व में चीन बहुत दिनों तक नहीं टिक पाएगा और सोवियत संघ की तरह ही विखंडित हो जाएगा लेकिन जनता का इस पार्टी में दृढ़ विश्वास इस मान्यता को सरासर झूठा साबित कर रही है।

चीन के पड़ोसी देश रूस को देखें तो, यह पता चलता है कि कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व में सोवियत संघ पर कम्युनिस्ट पार्टी की बागडोर 69 सालों तक ही रह पाई, उसके बाद सोवियत संघ विखंडित होकर रूस बन गया। इस दृष्टिकोण से भी चीन के लिए यह साल अत्यंत महत्वपूर्ण है। इससे यह प्रमाणित होता है कि चीन सबसे लंबे समय तक जीवित रहने वाला समाजवादी राष्ट्र है और कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व में विश्व की दूसरी सबसे बड़ी आर्थिक शक्ति के रूप में उभर चुका है। आखिर इस उपलब्धि के पीछे क्या रणनीति रही है? इस उपलब्धि के पीछे किस तरह का त्याग और बलिदान रहा है? इस उपलब्धि को पाने के पीछे कौन सी प्रेरक शक्ति रही है ?

अगर पिछले सत्तर वर्षों का मूल्यांकन किया जाए तो सबसे पहले ध्यान, शिक्षा की तरफ़ ही जाता है। सरकार ने राष्ट्र के विकास के लिए शिक्षा की आवश्यकता को प्राथमिक तत्वों में शामिल किया। इसके फलस्वरूप चीन में साक्षरता दर बढ़ाने का संकल्प सरकार ने अपनी ही भाषा में लिया था जिससे कि इस अभियान का फायदा देश के कोने-कोने में बैठे नागरिकों तक पहुंच पाए। सन् 1950 में, चीन की साक्षरता दर बहुत कम थी, उस समय देश की कुल जनसंख्या लगभग 54 करोड़ थी जिसमें अस्सी प्रतिशत लोग अशिक्षित थे।

उस समय प्राथमिक विद्यालय में विद्यार्थियों का प्रवेश दर लगभग 20 प्रतिशत था वहीं उच्च शिक्षा में जुटे विद्यार्थियों की संख्या एक लाख दस हज़ार के आसपास थी। चीन लोक गणराज्य की स्थापना के समय ही शिक्षा की आवश्यकता को महसूस किया गया और इसके  लिये सन् 1949 में नवंबर माह में शिक्षा विभाग की स्थापना की गई। सन् 1950 से ही देश में साक्षरता को बढ़ाने के लिए तरह-तरह के अभियान चलाए जाते रहे हैं।

शिक्षा के प्रति सरकार और नागरिकों की प्रतिबद्धता इसी बात से स्पष्ट होती है कि सन् 1952 में जब सैन्य खेल प्रतियोगित का आयोजन किया गया था तो दौड़ प्रतियोगिता में प्रतियोगिता शुरू करने के लिए बंदूक की गोली की आवाज की जगह पर प्रत्येक प्रतिभागी को नियत चीनी शब्द लिखना होता था, उसके बाद ही वह भाग सकता था। सुनने में यह बहुत आश्चर्यजनक महसूस होता है लेकिन इस बात से शिक्षा को लेकर लोगों में जागरूकता की स्पष्ट झलक मिलती है। चीन लोक गणराज्य की स्थापना के सत्तर वर्षों बाद, सरकार और नागरिकों के परस्पर सहयोग के फलस्वरूप शत-प्रतिशत साक्षरता के लक्ष्य को प्राप्त कर लिया गया है।

वर्तमान में चीन में प्राथमिक विद्यालयों में प्रवेश दर 99.95 प्रतिशत पहुँच चुकी है वहीं उच्च विद्यालयों और विश्वविद्यालयों में प्रवेश दर क्रमशः 97.5 प्रतिशत तथा 79.35 प्रतिशत पहुँच चुकी है। विशेषतौर पर चीनी नागरिकों ने विकसित देशों की तकनीक और क्षमता को हासिल करने के लिए विदेशी भाषा की शिक्षा पर भी बहुत ज़ोर दिया। इसका सबसे जीवंत उदाहरण पेइचिंग स्थित पेइचिंग विदेशी भाषा अध्ययन विश्वविद्यालय (Beijing Foreign Studies University) है, जहाँ पर इस समय 103 विदेशी भाषाओं की पढ़ाई हो रही है। यह अपने आप में आश्चर्य है।

दुनिया में बहुत कम ऐसे देश या विश्वविद्यालय हैं जहाँ पर इतनी सारी भाषाओं की शिक्षा एक ही स्थान या विश्वविद्यालय में उपलब्ध कराई जाती हो। इसके अतिरिक्त अगर विश्वविद्यालय रैंकिंग का उदाहरण लें तो चीन के कई ऐसे विश्वविद्यालय हैं जिनका स्थान विश्व के पचास सर्वोत्तम विश्वविद्यालयों में आता है, जैसे- पेकिंग विश्वविद्यालय, छिंगह्वा विश्वविद्यालय, फूतान विश्वविद्यालय आदि। इसी प्रकार चीन में शिक्षा प्राप्त कर रहे विदेशी छात्रों की संख्या देखें तो यह संख्या भी आश्चर्यजनक है।

हालांकि अधिकतर विद्यार्थी चीनी भाषा की शिक्षा लेने के लिये ही चीन आते हैं, लेकिन यह भी चीन की लोकप्रियता और आर्थिक शक्ति का द्योतक है जिससे विद्यार्थी प्रेरित होकर चीन का रुख़ कर रहे हैं। वर्तमान में चीन में लगभग तीन हज़ार विश्वविद्यालय हैं जहां पर विभिन्न विधाओं में ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है। पिछले सत्तर सालों में चीन में शिक्षा का जो विकास हुआ है उसका परिणाम उसकी आर्थिक प्रगति में लोगों की भागीदारी से प्रतीत हो जाता है।

चीन की उपलब्धि की जो दूसरी सबसे महत्वपूर्ण आधारशिला है, वह आधारभूत संरचनाओं का विकास। मार्ग या सड़क किसी भी राष्ट्र की धमनी होती है जिससे होकर आर्थिक प्रगति का सकारात्मक परिणाम मिलता है। क्षेत्रफल के हिसाब से चीन दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा देश है। इस दृष्टिकोण से देश को मुख्यधारा से जोड़ने के लिए राजमार्ग का विकास अत्यंत आवश्यक है। चीन सरकार ने इस आवश्यकता को महसूस किया और राष्ट्र की आत्मा में नवजीवन के संचार के लिए देश के कोने-कोने में राजमार्ग का जाल बिछाना शुरू किया।

1949 में जब चीन लोक गणराज्य की स्थापना हुई थी उस समय के यातायात व्यवस्था पर नज़र डालें तो पूरे देश में रेल मार्ग की कुल लंबाई लगभग 21800 किलोमीटर थी जिसमें आधे से ज्यादा जर्जर अवस्था में थी, सड़क मार्ग की कुल लंबाई लगभग 80800 किलोमीटर थी, सिर्फ 12 हवाई मार्ग ही वायु मार्ग से यातायात के लिए उपलब्ध था, कुल मिलाकर कहें तो यातायात की व्यवस्था बहुत जर्जर थी। पिछले सत्तर सालों के सतत विकास के फलस्वरूप वर्तमान समय में रेल मार्ग की कुल लंबाई एक लाख पच्चीस हजार किलोमीटर, सड़क मार्ग की कुल लंबाई एक लाख छत्तीस हजार किलोमीटर, हवाई अड्डों की संख्या 230 और आम जीवन में उपयोग होने वाली गाड़ियों की संख्या लगभग इकत्तीस करोड़ पहुँच चुकी है।

चीन में एक कहावत बहुत प्रसिद्ध है अगर संपन्न बनना है तो पहले राजमार्ग का निर्माण करो। इस कहावत को चरितार्थ करते हुए चीन ने जिस तेज़ी से यातायात की समस्या को सुलझाया है उससे लोगों का जीवन बहुत सुगम हो गया है और जनता के सामने यातायात के कई विकल्प उपलब्ध हुए हैं। इसी के फलस्वरूप चीन के उत्तर-पूर्व में बैठा कोई व्यक्ति दो दिनों के भीतर चीन के दक्षिण में स्थित कुवांग तुंग में मिलने वाली किसी भी आवश्यक वस्तु को प्राप्त कर सकता है।  

चीन के विकास की जो तीसरी सबसे महत्वपूर्ण आधारशीला है वह है विकास के प्रति दृढ़ संकल्प या दृढ़ निश्चय। कहने के लिए दृढ़ संकल्प तो कोई भी कर सकता है लेकिन उस मार्ग पर सतत अग्रसर रहने की प्रेरक शक्ति कहीं न कहीं चीन लोक गणराज्य की स्थापना से पूर्व साम्राज्यवादी देशों के उसके प्रति अत्याचार में ही छुपी हुई है। 1949 में चीन लोक गणराज्य की स्थापना से पूर्व ही चीनी लोगों को यह आभास हो गया था कि दुनिया के मंच पर अगर स्थान पाना है तो उसके लिए सबसे पहली शर्त है स्वयं को शक्ति संपन्न और सुदृढ़ बनाना।

चीन पर जापान का अत्याचार और विदेशी ताकतों द्वारा उसकी संप्रभुता के हनन का एक मात्र कारण उसकी दुर्बलता और पिछड़ेपन को ही जाता है। अतः 1949 में जब चीन लोक गणराज्य की स्थापना हुई तो सरकार ने निर्णय लिया कि चीन को एक शक्ति संपन्न और सुदृढ़ राष्ट्र के रूप में विकसित करेंगे जिससे कि फिर कभी विदेशी ताकतों के आगे झुकना या उनके अत्याचार का शिकार नहीं होना पड़े। इसी संकल्प के साथ चीन सरकार ने उठ खड़े होने से लेकर सुदृढ़ होने, फिर शक्तिशाली राष्ट्र बनने की रणनीति बनाई और उस मार्ग पर अग्रसर रहते हुए सत्तर सालों बाद उस लक्ष्य को हासिल करने में कामयाब हुई है। 

आज चीन जब अपनी इस कामयाबी के अवसर पर सत्तरवीं वर्षगांठ मना रहा है तो स्वामी विवेकानंद की एक उक्ति चरितार्थ होते हुए जान पड़ती है—उठो, जागो और तब तक लक्ष्य का पीछा करते रहो जब तक कि वह मिल नहीं जाती है। यह कहते हुए अतिश्योक्ति नहीं होनी चाहिए कि चीनी जनता अपने लक्ष्य को पाने के लिये सन् 1949 में उठी थी, 1978 में जग गई थी और उसके बाद अभी तक उस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए अग्रसर है जिस लक्ष्य का निर्धारण 1949 में चीन लोक गणराज्य की स्थापना के साथ किया गया था।

[डिस्क्लेमर: विकास कुमार सिंह अतिथि लेखक है और ये इनके निजी विचार हैं। टाइम्स नेटवर्क इन विचारों से इत्तेफाक नहीं रखता है। लेखक, चीन के पेइचिंग विदेशी भाषा संस्थान विश्वविद्यालय में एशिया अध्ययन केंद्र से संबद्ध हैं, पेकिंग विश्वविद्यालय से पीएचडी, भारत-चीन संबंधों पर कई शोध पत्र और चाइना रेडियो इंटरनेशनल की हिन्दी सेवा में पत्रकार रह चुके हैं।]

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