नई दिल्ली: अंतरराष्ट्रीय मंच पर ऐसा बहुत कम ही होता है कि भारत और चीन एक साथ खड़े नजर आए। लेकिन रविवार को ग्लासगो में Cop 26 सम्मेलन में ऐसा हुआ। जलवायु परिवर्तन पर तैयार हो रहे समझौता पत्र पर भारत द्वारा आपत्ति जताए जाने के बाद, कोयले को लेकर अहम बदलाव किए गए। जिसमें भारत का चीन को समर्थन मिला। हालांकि भारत और चीन के रुख पर विकसित देशों ने कड़ी आपत्ति जताई है।
विकसित देश भारत-चीन से हुए नाराज
संयुक्त राष्ट्र की मध्यस्थता वाले जलवायु समझौते के एक महत्वपूर्ण मार्ग को अंतिम समय में क्यों बदला गया, यह सवाल करते हुए COP 26 शिखर सम्मेलन के अध्यक्ष आलोक शर्मा ने कहा कि इस तरह की परिस्थितियों के सामने आने का उन्हें दुख है। भारत और चीन को जलवायु परिवर्तन के खतरे से जूझ रहे तमाम देशों को अपने इस फैसले को समझाना होगा ।
वहीं स्विटजरलैंड की पर्यावरण मंत्री सिमोनेटा सोमारुगा ने निराशा व्यक्त करते हुए कहा कि कोयले और जीवाश्म ईंधन को लेकर जिस भाषा पर हम सहमत हुए हैं, ये हमें 1.5 डिग्री सेल्सियस के टारगेट को हासिल करना और मुश्किल कर देगा।
भारत ने क्यों जताया विरोध
असल में समझौते के तहत मसौदे में कोयले के इस्तेमाल को 'फेज आउट' करने की प्रतिबद्धता को शामिल किया गया था। लेकिन इस पर भारत ने ऐतराज जताया। भारत का प्रतिनिधित्व कर रहे पर्यावरण मंत्री भूपेंद्र यादव कहा कि विकासशील देश कोयले और जीवाश्म ईंधन के इस्तेमाल को पूरी तरह से खत्म करने का वादा कैसे कर सकते हैं? जबकि उन्हें अभी भी अपने विकास के काम को आगे बढ़ाना और गरीबी से निपटना है। इसके बाद समझौते में यह शामिल किया गया कि ये देश कोयले के इस्तेमाल को पूरी तरह खत्म न करके उसे कम करेंगे यानी फेज डाउन करेंगे।
चीन ने क्यों दिया साथ
यूनाइटेड स्टेट्स इनवॉयरमेंटल प्रोटेक्शन एजेंसी की रिपोर्ट के अनुसार दुनिया में ग्रीन हाउस गैसों में 76 फीसदी कार्बन डाई ऑक्साइड की हिस्स्दारी है। और उसके उत्सर्जन में 65 फीसदी हिस्सेदारी जीवाश्म ईंधन की है। जिसमें सबसे बड़ी हिस्सेदारी कोयले की है। और इस समय दुनिया में हो रहे कोयले की इस्तेमाल को देखा जाय, तो वर्ल्डमीटर की रिपोर्ट के अनुसार पूरी दुनिया का 50 फीसदी कोयला चीन इस्तेमाल कर रहा है। जबकि भारत की 11 फीसदी हिस्सेदारी है। इसके बाद अमेरिका की 8.5 फीसदी हिस्सेदारी है। इसी तरह भारत दुनिया में तीसरा सबसे बड़ा कार्बन डाई ऑक्साइड उत्सर्जन करने वाला देश है। उसकी दुनिया में 7 फीसदी हिस्सेदारी है। जबकि चीन की 28 फीसदी और अमेरिका की 15 फीसदी हिस्स्दारी है।
लेकिन भारत-चीन इस आधार पर विकसित देशों की मांग पूरा नहीं करना चाहते हैं। उनकी दलील है कि जलवायु परिवर्तन के लिए विकसित देश कहीं ज्यादा जिम्मेदार हैं। और जब उनके विकास की बारी आई है, तो उन पर लगाई लगाई जा रही है। दोनों देशों की यह दलील सही भी है।
क्योंकि रिकॉर्ड को देखा जाय को औद्योगीकरण के बाद से दुनिया में सबसे ज्यादा कार्बन डाई ऑक्साइड उत्सर्जन अमेरिका ने किया है। 1750 से 2019 के दौरान अमेरिका ने 410 बिलियन मिट्रिक टन उत्सर्जन किया है। इसके बाद चीन ने 219.99 बिलियन मिट्रिक टन , रूस ने 113 बिलियन मिट्रिक टन, जर्मनी ने करीब 91 बिलियन मिट्रिक टन उत्सर्जन किया है। जबकि भारत ने अभी तक 51 बिलियन मिट्रिक टन कार्बन डाई ऑक्साइड का उत्सर्जन किया है। जाहिर है पृथ्वी के बढ़ते तापमान में भारत की हिस्सेदारी और जिम्मेदारी दोनों दूसरे देशों की तुलना में काफी कम है। इसी वजह से चीन ने भारत का साथ दिया है। क्योंकि उसे भी लगता है कि विकास के लिए अभी बहुत कुछ करने की जरूरत है।
भारत और चीन ने नेट जीरो का अलग रखा है लक्ष्य
विकसित और विकासशील देशों के अंतर को देखते हुए ही भारत और चीन ने विकसित देशों की तुलना में नेट जीरो का लक्ष्य हासिल करने की टाइमलाइन भी अलग रखी है। जहां अमेरिका सहित कई देशों ने साल 2050 तक नेट जीरो हासिल करने की बात कही है। जबकि चीन ने 2060 में और भारत ने साल 2070 का लक्ष्य रखा है। ग्रीन हाउस गैस के उत्सर्जन और वातावरण से ग्रीनहाउस गैस कम करने के बीच के संतुलन को नेट जीरो उत्सर्जन कहा जाता है। इसका मतलब यह है कि हर देश को एक तय साल में कुल कार्बन-उत्सर्जन शून्य करना होगा।
विकसित देशों ने हर्जाने का वादा नहीं निभाया
विकासशील देश और गरीब देशों की विकसित देशों को क्षतिपूर्ति का वादा पूरा नहीं करने के लेकर भी नाराजगी है। क्योंकि विकसित देशों ने अंधाधुंध विकास के एवज में जो नुकसान पहुंचाया है, उसका हर्जाना देकर ही विकासशील और गरीब देशों को कोयले की खपत कम की जा सकेगी। लेकिन यह वादा पूरा नहीं हो पाया है।
इस बीच भारत ने ग्लासगो सम्मेलन में भारत ने 2030 तक जीवाश्म रहित ऊर्जा क्षमता को 500 गीगावाट तक करने ,अपनी 50 प्रतिशत ऊर्जा मांग, रीन्यूएबल एनर्जी से पूरी करने, कुल प्रोजेक्टेड कार्बन उत्सर्जन में एक अरब टन की कमी करेगा और अपनी अर्थव्यवस्था की कार्बन इंटेन्सिटी को 45 प्रतिशत से भी कम करने की बात कही है।
जलवायु परिवर्तन क्यों बना चिंता
World Meteorological Organization (WMO) की रिपोर्ट के अनुसार भारत को पिछले साल, जलवायु परिवर्तन की वजह से आई प्राकृतिक आपदाओं की वजह से 87 अरब डॉलर का नुकसान उठाना पड़ा है। इसी तरह चीन को 238 अरब डॉलर और जापान को 83 अरब डॉलर का नुकसान हुआ है। इसी तरह स्विस री इंस्टीट्यूट की रिपोर्ट के अनुसार अगर 2050 तक पृथ्वी का तापमान 2.0 से 2.6 डिग्री तक बढ़ता है तो पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था को 11 से 13.9 फीसदी का नुकसान होगा।
इस खतरे को देखते हुए 2015 में जलवायु परिवर्तन को लेकर पेरिस समझौता हुआ था। इसका मकसद कार्बन गैसों का उत्सर्जन कम कर बढ़ते तापमान को रोकना था। इसके तहत तापमान को 1.5 से 2 डिग्री सेल्सियस से ज्यादा नहीं बढ़ने के लिए दुनिया ने अपने लक्ष्य तय किए थे। इसी के तहत कोयले की खपत को खत्म करने की बात ग्लासगो समझौते में की गई। हालांकि अब इसको लेकर धीरे-धीरे खत्म करने की सहमति बनी है।