बीजिंग : चीन में लोकतंत्र की आवाज को किस तरह दबाया जाता है, 'थियानमेन चौक नरसंहार' उसी का एक उदाहरण है। घटना 32 साल पुरानी है, जब साल 1989 में कम्युनिस्ट चीन में लोकतंत्र के समर्थन में बड़ा विरोध-प्रदर्शन हुआ था। इसमें हजारों छात्र और मजदूर इकट्ठा हुए थे, जो आजादी की मांग कर रहे थे। कुछ लोगों की शिकायत बढ़ती महंगाई, कम तनख्वाह और घरों को लेकर भी थी।
चीन में कम्युनिस्ट क्रांति के बाद 1949 में हुए सत्ता परिवर्तन के बाद वामपंथी शासन के इतिहास में इसे सबसे बड़ा राजनीतिक प्रदर्शन कहा जाता है। चीन में कम्युनिस्ट क्रांति के बाद माओत्से तुंग की अगुवाई में जनवादी चीन की स्थापना हुई थी और यह देश पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना के रूप में सामने आया। लेकिन इस बदलाव से बहुत से लोग खफा थे। उनकी नाराजगी सरकार की नीतियों को लेकर थी।
चीन में सत्ता परिवर्तन के बाद अस्तित्व में आई कम्युनिस्ट सरकार से जो लोग नाखुश थे, वे दबी आवाज में इसका विरोध कर रहे थे। चीनी प्रशासन हर बार ऐसी आवाजों को दबा देता था। लेकिन 1989 आते-आते यह आवाज मुखर हो गई थी। लोकतंत्र के समर्थन में उठी यह आवाज शहरों और विश्वविद्यालयों तक पहुंच गई थी, जिससे लाखों छात्र और मजदूर जुड़ते चले गए।
शासन पर 'तानाशाही' रवैया अपनाने का आरोप लगाते हुए वे इसे समाप्त करने और अपने अधिकारों, स्वतंत्रता की मांग कर रहे थे। उनकी मांग लोकतंत्र बहाली, बढ़ती महंगाई, वेतन वृद्धि को लेकर भी थी, जिसके लिए वे बीजिंग के थियानमेन चौक पर एकत्र होने लगे। 15 अप्रैल, 1989 से ही यह सिलसिला शुरू हुआ, जिसके बाद यहां जुटने वालों की भीड़ लगातार बढ़ती ही रही।
इस तरह लोकतंत्र के समर्थन में शुरू हुए इस प्रदर्शन से चीन के कम्युनिस्ट शासन के लिए चुनौती बढ़ती जा रही थी। 15 अप्रैल को शुरू हुआ यह विरोध प्रदर्शन यह छह सप्ताह तक चला था। लोकतंत्र बहाली के समर्थन में हुए उस प्रदर्शन के दौरान थियानमेन चौक पर जमा हुए प्रदर्शनकारियों की संख्या 10 लाख से अधिक बताई जाती है। चीन में जिस स्तर का यह प्रदर्शन हो रहा था, उसे देखते हुए बड़े बदलाव की उम्मीद की जा रही थी, लेकिन तत्कालीन शासन ने इसे बुरी तरह कुचल दिया, जिसमें हजारों निहत्थे लोग मारे गए।
थियानमेन चौक पर मौजूद लाखों प्रदर्शनकारियों के लिए 3 जून की रात कहर बनकर आई, जब सुरक्षा बल टैंकों के साथ वहां पहुंचे और लोगों पर अंधाधुंध गोलीबारी शुरू कर दी। शुरुआत में चीन ने इसमें लोगों के हताहत होने की बात भी नहीं बताई और बाद में इसकी संख्या 200 से 300 के बीच बताई, लेकिन कई विदेशी रिपोर्ट्स में चीन की इस कार्रवाई में 3000 से अधिक लोगों के मारे जाने और हजारों लोगों के घायल होने की बात कही गई। बाद में एक ब्रिटिश रिपोर्ट में हताहतों की संख्या 10,000 बताई गई, जो उस वक्त चीन में तैनात रहे ब्रिटेन के राजदूत एलन डोनाल्ड के लंदन भेजे गए पत्र पर आधारित थी।
निहत्थे लोगों पर हुई इस दमनात्मक कार्रवाई को लेकर पूरी दुनिया ने चीन को धिक्कारा। लेकिन बीजिंग को आज भी उस घटना का अफसोस नहीं है। चीनी प्रशासन अव्वल तो उस घटना का सार्वजनिक तौर पर जिक्र करने से बचता रहा है। लेकिन 2019 में चीन के रक्षा मंत्री वी फेंघी ने उस बयान ने एक बार पूरी दुनिया का ध्यान खींचा, जिसमें उन्होंने तत्कालीन चीन सरकार के उस कदम का बचाव किया। एक क्षेत्रीय फोरम में उन्होंने कहा कि उस समय बढ़ती 'अशांति' को रोकने के लिए यह नीति अपनाना ही 'सही' था।
चीन 1989 में हुई उस घटना की रिपोर्टिंग को भी बड़े पैमाने पर सेंसर करता रहा है। न केवल तब, बल्कि आज भी चीन इसे लेकर चौकस रहता है और हर साल जैसे ही 4 जून की तारीख नजदीक आती है, चीनी प्रशासन इसे भुलाने की पूरी कोशिश करता है। हर साल इस अवसर पर चीन की सेंसरशिप मशीनरी शुरू हो जाती है, जो इंटरनेट से इस घटना से जुड़ी सामग्री को हटाने के काम में लग जाती है।
टोरंटो यूनिवर्सिटी और हांगकांग यूनिवर्सिटी की 2020 में आई एक रिपोर्ट में भी कहा गया कि चीनी प्रशासन 1989 की उस घटना से जुड़े 3200 से अधिक सबूतों को मिटा चुका है, जबकि बड़ी संख्या में इससे जुड़ी सामग्री को सेंसर कर दिया गया है। यहां तक कि थियानमेन चौक पर अगर कोई विदेशी मीडिया का व्यक्ति जाना चाहता है तो उसे उस जोन में उसे नहीं जाने दिया जाता, जहां प्रदर्शनकारियों पर गोलियां बरसाई गई थी।
चीन में अगर कोई 1989 की उस स्याह घटना को लेकर कोई समारोह आयोजित करने की कोशिश करता है तो उसे साढ़े तीन साल तक जेल की सजा का भी प्रावधान है। प्रशासन की ऐसी तमाम सख्तियों के बीच चीन में लोग इस बारे में बोलना भी पसंद नहीं करते।