- 23 अप्रैल 1923 को गोरखपुर के हिंदी बाजार में 10 रुपये किराए पर मकान लिया और प्रेस की स्थापना कर नाम रखा ‘गीताप्रेस’
- महात्मा गांधी गीता प्रेस में लिखने के लिए तुरंत तैयार हो गए लेकिन विज्ञापन ना छापने की शर्त रखी
- ब्रह्मलीन दिग्विजय नाथ के करीबी रहे हनुमान प्रसाद पोद्दार ने राम मंदिर के लिए भी कदमताल की थी
यूपी में इन दिनों चुनावी सरगर्मियां जोरों पर हैं, एक सीट जिसकी सबसे ज्यादा चर्चा है वह गोरखपुर क्योंकि यहां से मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ चुनाव लड़ रहे हैं। लेकिन आज हम बात राजनीति, सीएम योगी या गोरक्षनाथ मंदिर की नहीं करेंगे, बात होगी गोरखपुर का इतिहास समेटे गीता प्रेस की जिसकी भारत ही नहीं बल्कि विश्वभर में ख्याति है। सनातन हिंदू संस्कृति में आस्था रखने वाला दुनिया में शायद ही कोई ऐसा परिवार होगा जो गीता प्रेस गोरखपुर के नाम से परिचित नहीं होगा।
सनातन साहित्य की प्राणवायु है गीता प्रेस
गीता प्रेस अब गोरखपुर का पर्याय बन चुकी है, यहां आने वाले पर्यटक गीता वाटिका आना नहीं भूलते। इस प्रेस की स्थापना की कहानी भी बेहद दिलचस्प है। बात गुलाम भारत की है... मूल रूप से चुरू, राजस्थान के रहने वाले जयदयाल गोयन्दका पैतृक व्यापार के अलावा अध्यात्म में खासी रुचि रखते थे। सेठ जयदयाल गोयन्दका ने लोगों को बांटने के लिए कोलकाता की एक प्रिंटिंग प्रेस से गीता की 5 हजार प्रतियां छपवाई। प्रेस से मिली प्रतियों में कई गलतियां थीं, जिन्हें देखकर सेठ जी दुखी हो गए। सेठ जयदयाल ने अशुद्धि रहित गीता छापने के लिए अपना प्रेस लगाने का निर्णय लिया गया।
10 रुपये के किराए के मकान से हुई प्रेस की शुरुआत
सेठ जयदयाल के निर्देश पर घनश्याम दास जालान और हनुमान प्रसाद पोद्दार ने 23 अप्रैल 1923 को गोरखपुर के हिंदी बाजार में 10 रुपये किराए पर मकान लिया और प्रेस की स्थापना कर नाम रखा ‘गीताप्रेस’। समय के साथ प्रेस का विस्तार होता चला गया, करीब 5 महीने बाद 600 रुपये में हैंडप्रेस प्रिंटिंग मशीन खरीदी गई। धीरे-धीरे किराए का मकान भी छोटा पड़ने लगा तब शेषपुर में 12 जुलाई 1926 को 10 हजार रुपये में वर्तमान के गीताप्रेस के पूर्वी हिस्से को खरीदा गया, बाद में इसका भी विस्तार हुआ। आज दुनिया के हर कोने में रामायण, गीता, वेद, पुराण और उपनिषद से लेकर प्राचीन भारत के ऋषियों -मुनियों की कथाओं को पहुंचाने का श्रेय सनातन के साहित्य को प्राणवायु देने वाली गीता प्रेस को जाता है।
गीता प्रेस प्रेस की किताबों में नहीं छपता विज्ञापन
1926 में गीता प्रेस ने मासिक पत्रिका निकालने का फैसला किया, तत्कालीन संपादक हनुमान प्रसाद पोद्दार ने महात्मा गांधी से कल्याण पत्रिका में एक लेख के जरिए अपने विचार लिखने का अनुरोध किया. महात्मा गांधी गीता प्रेस में लिखने के लिए तुरंत तैयार हो गए मगर उन्होंने एक शर्त रखी और कहा कि इस पत्रिका में कोई विज्ञापन न छापा जाए. महात्मा गांधी की बात को ब्रह्म वाक्य के रूप मानते पोद्दार जी ने विज्ञापन ना छापने का फैसला किया। आपको यह बात जानकर शायद आश्चर्य हो मगर गीता प्रेस प्रबंधन ने आज तक किसी भी किताब में कोई भी विज्ञापन नहीं छापा है। गीता प्रेस हिंदी और संस्कृत के अलावा 13 भाषओं में सनातन साहित्य को प्रकाशित करता है। 2018 में गीता प्रेस ने 5 हजार टन कागज पर मानस और दूसरे ग्रंथ छापे थे, ये आंकड़ा अपने आप में किसी भी दूसरे प्रकाशक में होने वाली कागज की खपत से करीब 20 गुना ज्यादा है। गीता और मानस के अलावा यहां 2 हजार से ज्यादा धार्मिक पुस्तकों की 61 करोड़ से ज्यादा प्रतियां छप चुकी हैं।
गीता प्रेस का गोरखनाथ मठ और राम मंदिर से है खास नाता
विश्व प्रसिद्ध धार्मिक पत्रिका कल्याण के आदि-संपादक और स्वतंत्रता संग्राम सेनानी हनुमान प्रसाद पोद्दार का गोरखनाथ मठ से खास नाता था, वह अक्सर मंदिर में आयोजित होने वाले कार्यक्रमों में शामिल हुआ करते थे। गोरक्षपीठ के तत्कालीन महंत ब्रह्मलीन दिग्विजय नाथ के करीबी रहे हनुमान प्रसाद पोद्दार ने राम मंदिर के लिए भी कदमताल की थी।
22 दिसंबर 1949 की रात घुप अंधेरे में जब विवादित ढांचे में रामलला 'प्रकट' हुए तब गोरक्ष पीठ के महंत दिग्विजय नाथ, देवरिया के अहिन्दीभाषी संत बाबा राघवदास, निर्मोही अखाड़ा के बाबा अभिराम दास, दिगंबर अखाड़ा के रामचंद्र परमहंस के अलावा गीता प्रेस के हनुमान प्रसाद पोद्दार उर्फ़ ‘भाई जी’ भी वहां मौजूद थे। कहा जाता है कि हनुमान प्रसाद पोद्दार कई वर्षों तक रामलला के वस्त्र और प्रसाद की व्यवस्था कराते रहे। गीता प्रेस की मासिक पत्रिका 'कल्याण' के कई अंक राम मंदिर को समर्पित थे।