नई दिल्ली: 1984 में बहुजन समाज पार्टी के गठन के बाद पार्टी से जुड़ने वाली मायावती के लिए, 37 में साल शायद पहला मौका है, जब वह अपने पुराने अंदाज में नहीं दिख रही है। एक समय साइकिल से यात्रा कर चुनाव प्रचार करने वाली मायवती इस बार बदली हुई नजर आ रही हैं। और उन्हें राजनीतिक पंडित 2022 के लिए सत्ता की रेस से बाहर मान रहे हैं। हालांकि ऐसा भी नहीं है कि मायावती को पूरी तरह से नजरअंदाज किया जा सकता है। क्योंकि यह सभी मानते हैं कि उनका एक बड़ा वोट बैंक है। जिसमें भाजपा से लेकर सपा के लिए सेंध लगाना आसान नहीं है।
सतीश चंद्र मिश्रा को सौंप दी है कमान
मायावती ने 2022 के लिए फिलहाल नरेंद्र मोदी, योगी आदित्यनाथ और अखिलेश यादव से अलग अंदाज अपना रखा है। जहां नरेंद्र मोदी, योगी आदित्यनाथ और अखिलेश यादव प्रदेश भर में ताबड़तोड़ रैलियां कर रही हैं। वहीं मायावती ने अभी तक ज्यादातर समय लखनऊ में ही बिताया है। उन्होंने चुनाव की कमान अपने सबसे भरोसेमंद सिपहसलार सतीश चंद्र मिश्रा और भतीजे आकाश को कमान सौंप रखी है। सतीश चंद्र मिश्रा जहां एक बार फिर से 2007 के सोशल इंजनीयिरंग फॉर्मूले को सफल बनाने में लगे हुए हैं। इसके तहत वह प्रबुद्ध सम्मेलन से लेकर ब्राह्मण सम्मेलन आदि कर रहे हैं। जबकि आकाश युवाओं को जोड़ने की कोशिश में हैं।
क्या है रणनीति
पार्टी की चुनावी रणनीति क्या होगी , इसका कुछ हद तक खुलासा बृहस्पतिवार को लखनऊ में मायावती के अपने कार्यकर्ताओं के साथ की गई बैठक से हुआ है। प्रदेश के सभी मंडल कोऑर्डिनेटर और सेक्टर प्रभारियों की बैठक बुलाई गई थी। इसमें तय हुआ कि इस बार टिकट देने में दलितों, ब्राह्मणों , मुस्लिमों और पिछड़ों पर फोकस रहेगा। हर जिले में इस फॉर्मूले पर काम किया जाएगा। वहीं गैर जाटव यानी पासी, वाल्मीकि और खटीक को भी टिकट देने में प्रमुखता दी जाएगी। साथ ही पार्टी सभी 403 सीटों के लिए जल्द से जल्द प्रत्याशियों का ऐलान करेगी।
पुराने साथियों ने छोड़ा साथ
2017 चुनावों से लेकर अब तक मायावती का साथ उनके कई पुराने साथियों ने छोड़ दिया है। इसमें बसपा को सबसे ज्यादा झटका समाजवादी पार्टी से मिला है। बसपा के कई बड़े नेता सपा का दामन थाम चुके हैं। कई नेताओं को मायावती ने अनुशासनहीनता के आरोप में पार्टी से भी निकाल दिया है। इस दौरान मायावती के साथ दशकों से जुड़े रहने वाले नेताओं ने भी पार्टी छोड़ दी है या फिर उन्हें निकाल दिया गया है। इसमें राम अचल राजभर, लालजी वर्मा, दारा सिंह चौहान ,नसीमुद्दीन सिद्दीकी , हरिशंकर तिवारी का कुनबा, बाबू सिंह कुशवाहा और स्वामी प्रसाद मौर्य नेताओं ने भाजपा, कांग्रेस और सपा में जमीन तलाश ली है।
जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के प्रोफेसर विवेक कुमार टाइम्स नाउ डिजिटल से कहते हैं " हार के बावजूद बसपा के वोटों की संख्या में कोई बड़ी कमी नहीं आई है। 2012 में उसे 1.96 करोड़ वोट मिले थे तो 2017 में उसे 1.92 करोड़ वोट मिले। वहीं समाजवादी पार्टी का प्रदर्शन देखा जाय तो 2012 में उसे 2.10 करोड़ वोट मिले जबकि 2017 में वह घटकर 1.89 करोड़ पहुंच गया। ऐसे में दोनों पार्टियों के सामने चुनौती है। और दूसरी बात यह भी समझनी होगी कि मायावती के राजनीति करने का तरीका एक-दम अलग है। उनका अपना वोट बैंक है। वह बूथ लेवल पर काम करने पर ज्यादा जोर देती हैं।
मायवती कमजोर हुईं तो किसको फायदा
बहुजन समाज पार्टी की जब 1993 में समाजवादी पार्टी के साथ मिलकर सरकार बनी थी, तो उस समय उसे करीब 20 फीसदी वोट मिले थे, और वह 67 सीटों पर चुनाव जीत कर आई थी। उसके बाद पार्टी का ग्राफ बढ़ता गया 2002 में उसे 23 फीसदी और 2007 में 30 फीसदी वोट मिले। 2007 में पार्टी ने अपने दम पर बहुमत के साथ सरकार बनाई थी। 2012 में करीब 26 फीसदी वोट मिले। जबकि 2017 में जब उसे केवल 19 सीटें मिली, तब भी उसका वोट प्रतिशत 22 फीसदी से ज्यादा रहा है। ऐसे में साफ है कि करीब 30 साल से बसपा 20 फीसदी वोट बैंक को टिकाउ बनाए हुए हैं। ऐसे में इसी वोट बैंक में सेंध लगाने में भाजपा और सपा लगे हुए हैं। अगर दो ध्रुवीय चुनाव होता है तो निश्चित है भाजपा और सपा प्लस में कड़ी टक्कर देखने को मिलेगी।