Kabir Ke Dohe: संत Kabir Das Jayanti के मौके पर अर्थ के साथ पढ़ें उनके प्रस‍िद्ध दोहे

आध्यात्म
मेधा चावला
मेधा चावला | SENIOR ASSOCIATE EDITOR
Updated Jun 05, 2020 | 10:46 IST

Kabir Ke Dohe Arth ke saath: ज्येष्ठ माह की शुक्ल पक्ष पूर्णिमा को कबीर जयंती मनाई जाती है। मध्यकालीन युग में जन्‍मे कबीर ने अपनी रचनाओं में भाईचारे और एकता संदेश द‍िया है। यहां पढ़ें उनके प्रस‍िद्ध दोहे।

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Kabir Ke Dohe पढ़ें हिंदी में अर्थ के साथ  
मुख्य बातें
  • कबीर दास मध्यकालीन युग के प्रस‍िद्ध धार्मिक कव‍ि थे जिनकी रचनाएं आज भी उतनी ही प्रासंग‍ित हैं
  • कबीर दास ने कोई व‍िध‍िवत श‍िक्षा नहीं ली थी और अपनी बात को वह दोहों के रूप में कहते थे
  • उनके दोहों में समाज की कुरीतियों पर प्रहार करने के साथ ही एकता व सौहार्द का संदेश भी द‍िया गया है

कबीर दास को भगत कबीर के नाम से भी जाना जाता है1 वह 15वीं सदी के भारतीय रहस्यवादी कवि और संत थे और उनकी रचनाओं ने हिन्दी प्रदेश के भक्ति आंदोलन को गहरे स्तर तक प्रभावित किया। भगत कबीर के लेखन का उल्‍लेख सिखों के आदि ग्रंथ में भी देखने को मिलता है। कबीर ने अपनी रचनाओं में धर्म निरपेक्षता का संदेश द‍िया है। साथ ही सामाजि‍क कुरीतियों पर भी प्रहार क‍िया था। कबीर की दृढ़ मान्यता थी कि कर्मों के अनुसार ही गति मिलती है स्थान विशेष के कारण नहीं। कबीर ने अपनी बातों को दोहों के जरिए कहा था। 

देखें अर्थ के साथ कबीर के प्रस‍िद्ध दोहे / Kabeer ke Dohe 

बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय,
जो दिल खोजा आपना, मुझसे बुरा न कोय।

अर्थ: जब मैं इस संसार में बुराई खोजने चला तो मुझे कोई बुरा नहीं मिला। लेकिन जब मैंने अपने मन में झांक कर देखा खुद से ज्‍यादा बुरा क‍िसी को भी नहीं पाया। 

पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय,
ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय।

अर्थ: बड़ी बड़ी पुस्तकें पढ़ कर संसार में कितने ही लोग मृत्यु के द्वार पहुंच गए, पर सभी विद्वान न हो सके। कबीर मानते हैं कि यदि कोई प्रेम या प्यार के केवल ढाई अक्षर ही अच्छी तरह पढ़ ले, अर्थात प्यार का वास्तविक रूप पहचान ले तो वही सच्चा ज्ञानी होगा।

माला फेरत जुग भया, फिरा न मन का फेर,
कर का मनका डार दे, मन का मनका फेर।

अर्थ: कोई व्यक्ति लम्बे समय तक हाथ में लेकर मोती की माला तो घुमाता है, पर उसके मन का भाव नहीं बदलता, उसके मन की हलचल शांत नहीं होती। कबीर की ऐसे व्यक्ति को सलाह है कि हाथ की इस माला को फेरना छोड़ कर मन के मोतियों को बदलो या फेरो।

बोली एक अनमोल है, जो कोई बोलै जानि,
हिये तराजू तौलि के, तब मुख बाहर आनि।

अर्थ: यदि कोई सही तरीके से बोलना जानता है तो उसे पता है कि वाणी एक अमूल्य रत्न है। इसलिए वह ह्रदय के तराजू में तोलकर ही उसे मुंह से बाहर आने देता है।

अति का भला न बोलना, अति की भली न चूप,
अति का भला न बरसना, अति की भली न धूप।

अर्थ: न तो अधिक बोलना अच्छा है, न ही जरूरत से ज्यादा चुप रहना ही ठीक है। जैसे बहुत अधिक वर्षा भी अच्छी नहीं और बहुत अधिक धूप भी अच्छी नहीं है।

कबीरा खड़ा बाज़ार में, मांगे सबकी खैर,
ना काहू से दोस्ती,न काहू से बैर।

अर्थ: इस संसार में आकर कबीर अपने जीवन में बस यही चाहते हैं कि सबका भला हो और संसार में यदि किसी से दोस्ती नहीं तो दुश्मनी भी न हो !

हिन्दू कहें मोहि राम पियारा, तुर्क कहें रहमाना,
आपस में दोउ लड़ी-लड़ी  मुए, मरम न कोउ जाना।

अर्थ: कबीर कहते हैं कि हिन्दू राम के भक्त हैं और तुर्क (मुस्लिम) को रहमान प्यारा है। इसी बात पर दोनों लड़-लड़ कर मौत के मुंह में जा पहुंचे, तब भी दोनों में से कोई सच को न जान पाया।
 

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